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अनेकान्त 67/3, जुलाई-सितम्बर 2014 प्रत्येक पदार्थ स्वतः सत् होता है। कोई असत् पदार्थ किसी सत्ता सामान्य के योग से कभी सत् नहीं बन सकता है। यदि यह न माना जाये तो शशभंग या आकाश कुसुम भी सत् हो जायेंगे जो स्वयं सत् है उसे सत्तासामान्य के योग की जरूरत नहीं है। इसलिये यह कथन ठीक है कि समवायियों के साथ समवाय सम्बन्ध ठीक नहीं है। समन्तभद्र की स्पष्टोक्ति देखिये इस कारिका
में
'आश्रयाश्रयिभावान्न स्वातन्त्र्यं न समवायिनाम्।
इत्ययुक्तः स सम्बन्धो न युक्तः समवायिभिः।।१३
आचार्य समन्तभद्र सामान्य और समवाय की अवधारणा को स्पष्ट करने के लिये कहते हैं कि -
'सामान्यं समवायाश्चाप्येकैकत्र समाप्ति तः। अन्तरेणाश्रयं न स्यान्नशोत्पादिषु को विधिः।।
सर्वथानभिसम्बन्धः सामान्यसमवाययोः।
ताभ्यामर्थो न सम्बद्धस्तानि त्रीणि खुपुष्पवत्।। आश्रय के बिना सामान्य और समवाय नहीं रह सकते हैं वे अपने आश्रयों में ही पूर्ण रूप से रहते हैं। सामान्य और समवाय एक नित्य और व्यापक हैं। जैसे गोत्व सामान्य एक नित्य व्यापक होकर सभी गायों में पूरा पूरा का रहता है। वैसे ही समवाय भी अपने समवायियों में पूरा का पूरा रहता है। प्रश्न यह है कि उत्पन्न होने वाले और नाशशील पदार्थों में वह कैसे रहता है? वैशेषिकों का यहाँ यह कथन समीचीन प्रतीत नहीं होता कि सत्ता सामान्य के समान समवाय भी अपने नित्य समवायियों में सदा पूर्ण रूप से रहता है किन्तु जो अनित्य समवायी हैं उनमें उत्पन्न होने वालों में सत्ता का समवाय बन जाता है, उत्पन्न होने एवं सत्ता के समवाय का काल एक ही है। सत्ता और समवाय का असत्त्व न पहले था, न ही सत्ता और समवाय का कहीं से आगमन होता है और न बाद में उनकी उत्पत्ति होती है। अतः उत्पन्न ध्वंसी पदार्थों में उनका होना कोई दूषण नहीं है, सहज सम्भव है।
उपर्युक्त कथन निर्दोष नहीं हो सकता है क्योंकि व्यापक और एक सामान्य एवं समवाय का अपने प्रत्येक आश्रय में पूरा का पूरा रहना असम्भव