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अनेकान्त 67/3, जुलाई-सितम्बर 2014
गतांक से आगे....... पं. जुगलकिशोर 'मुख्तार' स्मृति व्याख्यानमाला २२ दिस. २०१३ में दिया गया व्याख्यान -
आचार्य समन्तभद्र का आप्त मीमांसा
प्रो. श्रीयांश कुमार सिंघई, जयपुर
'देशकालविशेषेऽपि स्याद् वृत्तियुतसिद्धवत्।
समानदेशता न स्यात् मूर्तकारणकार्ययोः।।२
उपर्युक्त दोष प्रक्षालन इस तर्क से नहीं किया जा सकता है कि अवयव-अवयवी, गुण-गुणी आदि समवायि पदार्थों में परस्पर स्वातन्त्र्य नहीं है। समवाय उन्हें समान देश और समानकाल में साथ रखता है। अवयव अवयवी आदि में आश्रय भाव है। अवयव आश्रय हैं और अवयवी आश्रयी। इसी प्रकार गुण आश्रय है और गुणी आश्रयी। समवायिपदार्थों में विद्यमान स्वतंत्रता को समवाय कैसे दूर करके उन्हें साथ रहने पर बाध्य कर देता है और स्वयं उन समवायियों से असम्बद्ध रहता है। प्रश्न होता है कि समवाय अपने समवायियों में अन्य समवाय के कारण से रहता है या स्वतः रहता है। यदि अन्य समवाय के कारण समवायियों में समवाय रहता है तो उस अन्य समवाय का सम्बन्ध भी समवायियों के साथ तीसरे समवाय से होगा। इस प्रकार अनवस्था दोष प्रसंग अपरिहार्य हो जाता है। अथवा समवाय अपने समवायियों (अवयव-अवयवियों) में स्वतः रहता है तो अवयवी भी अपने अवयवों में समवाय की अपेक्षा किये बिना स्वतः ही रह लेगा। इन दोषों से बचने के लिये कहा जाये कि समवाय अनाश्रित होता है और उसे किसी अन्य आश्रय या सम्बन्ध की अपेक्षा नहीं होती है किन्तु वह असम्बद्ध ही रहता है। इसलिये भी यह कहना ठीक नहीं कि असम्बद्ध समवाय समवायियों का सम्बन्ध करा देता है। यदि असम्बद्ध समवाय पदार्थ में सम्बन्ध की कल्पना की जाये तो दिशा काल आदि को भी सम्बन्ध मानना चाहिये। जो नहीं माना जाता है वैसे समवाय का भी अपने समवायियों के साथ सम्बन्ध नहीं माना जाये। सत्ता सामान्य की कल्पना के समान समवाय की कल्पना भी व्यर्थ है।