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अनेकान्त 67/3, जुलाई-सितम्बर 2014
समाज भी इसमें पीछे नहीं है, बल्कि यह कहा जाये कि इसमें अग्रणी दृष्टिगोचर हो रही है। पहले परोपकार आत्मकल्याण का मार्ग माना जाता रहा है। अब परोपकार के नाम पर तरह-तरह की चालाकियाँ, चतुराईयाँ, बेईमानियाँ हो रहीं है। मंच पर बैठने के लिए दान देने वालों की संख्या खूब बढ़ रही है किन्तु प्याऊ लगाने जैसे पारम्परिक परोपकारी प्रवृत्तियाँ घटती जा रही हैं। साधुओं के कार्यक्रमों के खर्चीले लाखों रुपयों के कार्ड छप रहे हैं तथा एतान्निमित्त उन धनपतियों से पैसा बटोरा जा रहा है, जो अपनी अन्यायी एवं अहंकारी प्रवृत्ति के लिए जगत्प्रसिद्ध हैं। अभी मैंने अपनी आँखों से एक आचार्य परमेष्ठी के समक्ष एक धनपति को अपनी ही समाज के व्यक्ति को डेढ़ आने का आदमी कहकर माँ-बहिन की गाली देते देखा। हद तो तब हो गई जब उन्हीं परमेष्ठी के सान्निध्य में आयोजित एक बहुरंगी कार्ड में उन्हीं को विशिष्ट अतिथि के रूप छपा देखा। क्या होगा इस साधुभक्त भोली-भाली समाज का ?
जैन धर्मशालाओं की स्थिति :
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जैन समाज की परोपकारी समाज के रूप में ख्याति किसी से छुपी नहीं है। मई के अन्तिम सप्ताह में भ्रमणार्थ विद्वत्परिषद् के संयुक्त मंत्री डॉ. नरेन्द्र कुमार जैन गाजियाबाद के साथ गया था। एक रात्रि जैन धर्मशाला देहरादून में रुकने का अवसर मिला। जिन दो कमरों में रुकने को कहा गया जब हम वहाँ गये तो उनमें कुछ लोग बैठकर मांस-मदिरा का खुले-आम सेवन कर रहे थे। कमरों से वापिस आने पर जब पटल पर कहा तो बताया गया कि किन्हीं सरदार जी का विवाह का कार्यक्रम था। हमारे निवेदन करने पर दो नये A. C. कमरे एलॉट कर दिये गये। किन्तु मन कचोटता रहा कि क्या यही धर्मशालाओं का सही उपयोग है? क्या धर्मशाला और होटल में कोई अन्तर नहीं होना चाहिए। क्या हम अहिंसा धर्म का पालन कर रहे हैं? क्या हम वास्तव में जैन हैं? क्या यही उस जैन धर्मशाला का स्वरूप है, जिसमें जिनालय भी है ? समाज सकारात्मक चिन्तन करे।
आदर्श वैवाहिक कार्यक्रम :
मुजफ्फरनगर में एक श्रेष्ठी की पुत्री के विवाह के उपलक्ष्य में संगीत की आयोजना थी। संगीत का नामकरण कार्ड में छापा था- जिनवाणी स्तुति