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अनेकान्त 67/3, जुलाई-सितम्बर 2014
संपादकीय
पुरातत्त्व एवं नवनिर्माण
यह सुविदित तथ्य है कि बीज के विध्वंस के बिना वृक्ष की उत्पत्ति संभव नही है और वृक्ष की वृद्धि के बिना फलागम संभव नही है। आजकल कुछ संस्थाओं पर मालिकाना हक समझने वाले तथा कथित अध्यक्ष और उनके द्वारा रेवड़ियों की तरह बाँटे जा रहे पदों पर आरूढ़ अन्य पदाधिकारीगण पुरातत्त्व संरक्षण के नाम पर जीर्णोद्धार एवं नवनिर्माण के विरुद्ध जो विषाक्त वातावरण बना रहे हैं, वह जैन समाज के पतन का कारण नहीं बनेगा, ऐसा दावा किसी के द्वारा नहीं किया जा सकता है। हद तो तब हो गई जब वे अपनी तीर्थ जीर्णोद्धार की दुकानदारी चलती न देख जीर्णोद्धार एवं नवनिर्माण के सम्प्रेरक पूज्य परमेष्ठीजनों को पापी एवं महापापी कहकर अपनी जिह्वा को अपावन तो बना ही रहे हैं, साथ ही समाज को ऐसे अन्धगर्त में गिराने का कुप्रयास भी कर रहे हैं, जिसका कुपरिणाम हमें पीढ़ी दर पीढ़ी भोगना पड़ सकता है। हमें पुरातत्त्व की सीमा का निर्धारण करके उसके संरक्षण का प्रयास अवश्य करना चाहिए, किन्तु आरोपों में भाषा की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। खन्दारगिरि (चन्देरी), सेरोन जी, देवगढ़ (ललितपुर), बजरंगढ़ (गुना), सांगानेर (जयपुर), बिजौलिया (झालावाड़), चाँदखेड़ी आदि में पूज्य मुनियों की प्रेरणा से समाज ने जो जीर्णोद्धार के कार्य कराये हैं, उनमें पदारूढ समितियों के विरोधी खेमों में मतभेद हो सकते हैं, किन्तु इसे तो वे भी मानते हैं कि जो हुआ है वह तत्रत् क्षेत्रों का स्वर्णिम अध्याय है। मेरा निवेदन है उन फतवा जारी करने वाले ज्ञानाहंकारियों से कि वे अधकचरे ज्ञान के आधार पर आगम की झूठी डींगे न हाँके। हाँ, हो सकता है कि व्यापार, पत्रकारिता या न्याय के क्षेत्र में वे उच्चकोटि के ज्ञाता हों।
स्वयं विध्वंस के कगार पर मौजूद जिनायतनों का यदि नवनिर्माण या समाज न रहने पर स्थानांतरण होता है तो हमें गंभीरता से तथ्यात्मक चिंतन की आवश्यकता है। डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, अध्यक्ष- अखिल भारतवर्षीय