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अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014
मैं आचार्य हूँ, कवि हूँ, पण्डित हूँ, वैद्य हूँ, मात्रिक हूँ, तांत्रिक हूँ, इस संपूर्ण पृथ्वी पर मुझ वचन सिद्धि है अधिक क्या कहूँ मैं सिद्ध सारस्वत हूँ।
किसी को यह गर्वोक्ति प्रतीत हो सकती है किन्तु वास्तविकता व तथ्योक्ति यही है।
श्रवणवेलगोला के विंध्यगिरि पर्वत पर मल्लिषेण रचित एक शिलालेख में कहा गया है - मैं कांची नगरी में नगरी में दिगम्बर साधु था, उस समय मेरा शरीर मलिनता पूर्ण था, लांतुश नगर में मैंने अपने शरीर में भस्म लगाई थी, उस समय मैं पांडुरंग था। पुण्ड्र नगर में मैंने बौद्ध भिक्षु का रूप धारण किया था। दशपुर नगर में मैं मिष्ठान्न भोजी परिव्राजक बना। वाराणसी में आकर मैंने चन्द्र समान धवल कान्ति युक्त शैव तपस्वी का वेश धारण किया। हे राजन! मैं जैन निर्गन्थ मुनि हूँ जिसकी शक्ति हो वह मेरे समक्ष आकर शास्त्रार्थ करे।
दक्षिण के होते हुए भी उन्होंने देश में भ्रमण किया, जिसका पुष्टि श्रवणवेलगोला के शिलालेख नं. ५४ से होती है।
पूर्व पाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताडिता। पश्चान्मालव सिन्धु ठक्क विषये कांचीपुरे वैदिशे। प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं संकटम्।
वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितं। पहिले मैंने पाटलिपुत्र नगर में वादि के हेतु भेरी बजाई, पश्चात् मालवा, सिन्धु ठक्क (पंजाब), कांचीपुर, विदिशा में भेरीताड़न किया, इसके पश्चात् मैं विद्वानों तथा शूरवीरों से समलंकृत करहाटक देश में गया। हे नरपति ! मैं शास्त्रार्थ का इच्छुक हूँ। मैं शार्दूल के समान निर्भय होकर विचरण करता हूँ।
अनेक शिलालेखों में आचार्य समन्तभद्र का उल्लेख व प्रशंसा की गई है। ईसा की पहली व दूसरी तथा विक्रम की दूसरी, तीसरी शताब्दी में आचार्य समन्तभद्र का समय माना जाता है। कन्नड़ ग्रन्थ ‘कर्नाटक कवि चरिते' में आर० नरसिंहाचार्य ने इनका शक संवत् ६० ईस्वी संवत् १२८ माना है।
___आचार्य जिनसेन, आ० विद्यानन्दि, आ० शुभचन्द्र, आ० वादीभ सिंह, भट्टारक प्रभाचन्द्र, हस्तिमल्लि आदि अनेकों आचार्यों व विद्वानों ने आ० समन्तभद्र की बहुत बहुत प्रशंसा की है व अनेक उपाधियों से विभूषित किया है। विक्रान्त कौरव हस्तिमल्ल ने उन्हें श्रुतकेवली ऋद्धि प्राप्त थी, उनके वचन