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अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014
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तो क्षणिक उपादान व्यय, उत्पाद और स्थिति रूप होता है। कार्य के होने में यह क्षणिक उपादान ही नियामक हेतु है । इस क्षणिक उपादान रूप हेतु के कारण ही वर्तमान क्षण में स्थित पर्याय की स्थिति होती है तथा पूर्णक्षणवर्ति पर्याय का व्यय एवं उत्तर क्षणिवर्ति पर्याय का उत्पाद देखा जाता है। यह प्रक्रिया सतत चलती रहती है जिससे हर क्षण उत्पाद व्यय और स्थिति का बना रहना संभव हो जाता है । अपने-अपने लक्षणों के कारण उत्पाद-व्यय पृथक् आकलित होते हैं किन्तु जाति के अवस्थान से ये भिन्न नहीं है। इस प्रकार द्रव्य में इनकी कथञ्चित् भिन्नता और अभिन्नता निश्चित हो जाती है। निरपेक्षतः उत्पाद व्यय और स्थिति आकाशकुसुम के समान अवस्तु होते हैं तथा द्रव्य में सान्वित होने के कारण सम्यक् हैं।
प्रत्येक वस्तु उत्पाद व्यय और ध्रौव्य स्वरूप वाली है यह समझाने के लिये स्तोत्रकार समन्तभद्र ने दो श्लोक उदाहरणार्थ प्रस्तुत किये हैं“घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्। शोक प्रमोदमाध्यस्थं जनो याति सहेतुकम् ॥ पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोत्ति दधिव्रतः। अगोरसव्रतो नोभे तस्मात्तत्वं त्रयात्मकम् ।।४९
चतुर्थपरिच्छेद :
इस परिच्छेद में न्यायवैशेषिक दर्शन की उस मान्यता की समीक्षा हुई है जिसमें उन्होंने अवयव - अवयवी, गुण-गुणी, कार्य-कारण, सामान्य-सामान्यवान्, विशेष- विशषेवान् आदि में पृथक्त्व को स्वीकार किया है और उनके योजक पदार्थ समवाय की निरूपणा की है। आचार्य समन्तभद्र उनके पक्ष का उपस्थापन इस कारिका से करते हैं - 'कार्यकारणानानात्वं गुणगुण्यन्यताऽपि च । सामान्यतद्वदन्यत्वं चैकान्तेन यदीष्यते । । ५०
यदि नैयायिक वैशेषिकों द्वारा कार्य कारणों में नानात्व को, गुण-गुणी में अन्यता को और सामान्य- सामान्यवान् में अन्यत्व को सर्वथा एकान्त के रूप में स्वीकार किया जाता है तो वह विचारणीय माना जाना चाहिये। उन्होंने