________________
अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014 नहीं कहलायेंगे। इस प्रकार पृथक्त्वैकान्त पक्ष में ज्ञान और ज्ञेय दोनों असत् हो जाते हैं। वही इस श्लोक में कहा है -
"सदात्मना च भिन्नं चेज्ज्ञानं ज्ञेयाद् द्विधाप्यसत्।
ज्ञानाभावे कथं ज्ञेयं बहिरन्तश्च ते द्विषाम्।।३०
बौद्धमत में शब्द सामान्य के ही वाचक हैं उनमें विशेष का कथन नहीं किया जा सकता है। जब सामान्य का प्रतिपादन शब्द करते हैं तब सामान्य वहाँ पारमार्थिक नहीं है। यथा गोपदार्थों में कोई गोत्व सामान्य नहीं रहता है किन्तु सभी गोपदार्थ अगोपादार्थों से व्यावृत्त हैं - ऐसा बौद्ध मानाते हैं। शब्द का वाच्य कोई पदार्थ तब होता है जब उस पदार्थ में संकेत ग्रहण कर लिया गया हो। अमुक शब्द अमुक अर्थ को धोतित करता है इस प्रकार की बौद्धिक शक्ति विशेष से वक्ता या श्रोता शब्द का अर्थ में वाच्य वाचक सम्बन्ध स्वीकार कर लेते हैं, यही संकेतग्रहण है। यहाँ शब्द वाचक और पदार्थ वाच्य कहे जाते हैं। विशेष अनन्त हैं। उन अनन्त विशेषों में संकेत संभव नहीं हो सकते हैं। इसलिये विशेष शब्द के वाच्य नहीं है। तथा संकेत काल में ज्ञात या विद्यमान विशेष क्षणिक होने से अर्थ प्रतिपत्ति के काल में नहीं रहते हैं। स्वलक्षण विशेष का जैसा स्पष्ट ज्ञान प्रत्यक्ष से होता है वैसा शब्द से सम्भव नहीं है तथा शब्दज्ञान में स्वलक्षण रूप विशेष की सन्निधि भी अपेक्षित नहीं होती है। स्वलक्षण के विना ही शब्द ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। अतएव कोई विशेष शब्द का वाच्य नहीं है केवल सामान्य ही शब्द का वाच्य होता है।
समन्तभद्र कहते हैं कि बौद्धों का यह कथन समीचीन नहीं हो सकता है क्योंकि अपारमार्थिक सामान्य तो अवस्तुभूत ही है बौद्धमत में। यदि शब्द का वाच्य सामान्य है विशेष नहीं तो शब्द का वाच्य अवस्तुभूत कहलायेगा फिर वहाँ शब्दोच्चारण और संकेत ग्रहण की आवश्यकता कहाँ रही यदि मानेंगे तो अवस्तु का ज्ञान असमीचीन या अप्रमाणिक होगा। इस प्रकार शब्द मिथ्या हो जायेंगे। कहा भी है -
"सामान्यार्था गिरोऽन्येषां विशेषो नाभिलप्यते। सामान्याभावतस्तेषां मृषैव सकला गिरः॥"३१