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अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014
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मानें तो पृथक्त्वैकान्त को छोड़ देने से स्वमतविरोध हो गया । गुण गुणी में भेद मानने के कारण नैयायिकों वैशेषिकों के यहाँ पृथक्त्व गुण को पृथक् भूत पदार्थों से अपृथक् गुण पृथकभूत पदार्थों से पृथक् है तो पृथक-पृथक् पाये जाने वाले पदार्थ परस्पर में अपृथक् हो जायेंगे। फिर पृथक्त्व गुण भी पृथक्त्व नाम से नहीं जाना जायेगा (पृथक्त्वे न पृथक्त्वं) इस दोष से बचने के लिये पृथक्त्वगुण को सर्व पदार्थों में स्थित होना चाहिये जो आपके यहां सभव नहीं है क्योंकि गुण तो अपने गुण तो अपने गुणी में ही रहता है, सबमें नहीं । अतः पृथक्त्वगुण अपने पृथक्त्ववान् गुणी में ही रहे।
पृथक्त्व गुण के कारण पदार्थों में पृथक्त्व भी मानना ठीक नहीं है। क्योंकि इससे तो सभी पदार्थ अपने गुणों से सर्वथा हो जायेंगे और यह कथन भी असम्भव हो जायेगा कि ज्ञान आत्मा का गुण है और गन्ध पृथ्वी का गुण
है।
बौद्ध मानते हैं कि परमाणु अपने सजातीय विजातीय परमाणुओं से पृथक् होते हैं। और सभी पदार्थ निरंश, निरन्वय और क्षणिक होते हैं। उनके इस पृथक्त्वैकान्त का निरसन आचार्य समन्तभद्र इस प्रकार करते हैं - “सन्तानः समुदायश्च साधर्म्यञ्च निरंकुशः । प्रेत्यभावश्च तत्सर्वं न स्यादेकत्वनिह्नवे ।। १२९
अर्थात् जीवादिक पदार्थों में सर्वथा पृथक्त्व यानि एकत्वपने का अभाव मानें तो संतान ( जायमान पर्यायों में एकता रूप द्रव्य का अन्वय), समुदाय (एक स्कन्ध में अपने अववयों की एकता और साधर्म्य (जिन पदार्थों के समानधर्म हैं उनके समान परिणामों की एकता) पृथक्त्वैकान्त पक्ष में निरंकुश हो जायेंगे अर्थात् खंडित या असिद्ध हो जायेंगे। तथा जीवादिकों में पायी जाने वाली बाल्य, युवा, जरा आदि अवस्थाऐं और परलोक में प्राप्त भव (प्रेत्यभाव) भी एकत्व का निह्नव करने वाले पृथक्त्वैकान्त में सम्भव नहीं रहेंगे।
पुनश्च, ज्ञान को ज्ञेयवस्तु से सत् स्वरूप की अपेक्षा सर्वथा भिन्न मानें जाने पर तो वह असत् हो जायेगा । ज्ञान को जीवसत् द्रव्य से सर्वथा भिन्न मानेंगे तो सत् के अभाव में वह ज्ञान असत् कहलायेगा। तथा घट पर आदिक बाह्य ज्ञेय की अपेक्षा ज्ञान को सर्वथा भिन्न मानेंगे तो वे बाह्य पदार्थ ज्ञेय ही