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अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014
‘च्चा', जैसे- किच्चा, णच्चा, सोच्चा, भोच्चा, चेच्चा आदि। 'इया', जैसे- परिजाणिया, दुरूहिया आदि।
इनके अतिरिक्त ‘त्ता', 'तु', 'तूण', 'उं', 'ऊण', 'इय', प्रत्यय भी क्त्वा प्रत्यय के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। तथा इसके अलावा विउक्कम्म, निसम्म, समिच्च, संखाए, अणुवीति, लद्धं, लभ्रूण, दिस्सा इत्यादि प्रयोगों में क्त्वा' के रूप भिन्न-भिन्न तरह के पाए जाते हैं।
२७. हेत्वर्थक् 'तुमुन्' प्रत्यय के स्थान पर 'इत्तए', 'इत्तते', 'तुं' और ‘उँ' प्रत्यय प्रयुक्त होते हैं। जैसे- करित्तराए, गच्छित्तए संभुंजित्तए, उवसमित्तते (विपा० १३) विहत्तए, करित्तुं, करिउँ, पण्णवेत्तए, परूवेत्तए (अंत० ६.३८) सहित्तए, (३.६८) इत्यादि।
२८. वर्तमान कृदन्त के लिए 'न्त' और 'माण' प्रत्यय प्रयुक्त होते हैं। जैसे- भावेमाणे (अंत० १.१८), भुंजमाणा (अंत० ६.२४), भावेमाणी (अंत० ५.३१), भावेमाणस्स (अंत० ६.५३) इत्यादि।
२९. ऋकरान्त धातुओं से लगने वाले कर्मणि भूतकृदन्त के 'त' प्रत्यय के स्थान पर 'ड' हो जाता है। जैसे- कृत > कड, मृत > मड, अभिहृत >अभिहड इत्यादि।
३०. 'तर' प्रत्यय का रूप ‘तराए' हो जाता है। जैसे- अणुितराए, अप्प-तराए, बहुतराए, कंततराए आदि।
३१. मतुप् और अन्य तद्धित प्रत्ययों के रूप- आउसो, आउसंतो, गोमी, वुसिमं, भगवंतो, पुरत्थिम, पच्चत्थिम, ओयंसी, दोसिणो, पोरेवच्च आदि विभिन्न रूपों में प्राप्त हो जाते हैं।
३२. धातु रूपों में आइक्खइ, कुव्वइ, भुविं, होक्खति, बूया, अब्बवी, होत्था, हुत्था, पहारोत्था, आघं, दुरूहइ, विगिंचए, तिवायए, अकासी, तिउइ, तिउटिज्जा, पडिसंधयाति, सारयति, घेच्छिइ, समुच्छिहिंति, आहंसु आदि प्रकृति, प्रत्यय तथा उभय विभिन्न रूपों में अर्धमागधी में प्राप्त हो जाते हैं जो अर्धमागधी की अपनी विशेषता है।
३३. सप्तमी एक वचन की विभक्ति- अंसि। अर्थात् अर्धमागधी में अंसि' प्रत्यय का प्रयोग सप्तमी ए० व० की विभक्ति के लिए हुआ है, जैसेरायमगंसि (अंत, ६.१६), नयरंसि, लोगंसि, इहंसि उत्तमो भंते (उत्तराध्ययन सूत्र,