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अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014 अभिहित किया है, जो आठ सौ श्लोक प्रमाण होने से अष्टशती के नाम से विख्यात हुई। यह कृति अत्यन्त क्लिष्ट एवं गूढार्थ निवेशित है। आचार्य विद्यानंद की टीका अष्टशती के गूढ़ रहस्यों को समझ सकना संभव हुआ है।
अष्टसहस्री में अष्टशती को पूर्णरूप से यथा स्थान आत्मसात कर लिया गया है। टीकाकार ने स्वयं अपनी इस टीका को आप्तमीमांसालंकृति नाम दिया
है।
आप्तमीमांसा या देवागमस्तोत्र समन्तभद्र की अनुपलब्ध कृति गन्धहस्ति महाभाष्य का मंगलाचरण प्रतीत होता है। क्योंकि चौदहवीं शती के विद्वान् विक्रान्तकौरव के रचनाकार हस्तिमल ने देवागम स्तोत्र के उपदेशक आचार्य समन्तभद्र को तत्त्वार्थसूत्र के व्याख्यान स्वरूप गन्धहस्ति का प्रवर्तक माना है। विक्रमसंवत्सर की तेरहवीं शती में हुये अष्टसहस्री के टिप्पणकार लघु समन्तभद्र ने भी अपने पादटिप्पण में आचार्य समन्तभद्र को स्याद्वादविद्या का अग्रगण्यगुरु और तत्त्वार्थधिगम स्वरूप मोक्षशास्त्र के महाभाष्य गन्धहस्ति का उपनिबन्धकर्ता बताया है। उनके अनुसार समन्तभद्र ने इसी गन्धहस्तिमहाभाष्य के मंगलाचरण में मंगल को पुरस्कृत करके मंगलस्तवन के विषयभूत परम आप्त अर्हन्त परमेष्ठी को अतिशय परीक्षा से उजागर या उपक्षिप्त करते हुये देवागम स्तोत्र नामक प्रवचनतीर्थ की सृष्टि (रचना) को पूरा किया था।
उक्त उल्लेखों से स्पष्ट हो जाता है कि आचार्य समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा परक देवागमस्तोत्र को गन्धहस्ति महाभाष्य के मंगलाचरण के रूप में तत्त्वार्थसूत्र की टीका करने के लिये लिखा था। यहाँ उन्होंने अपनी परीक्षा प्रधान दृष्टि से आप्त पुरुष अर्हत्परमेष्ठी के ही अपना आराध्य घोषित किया है। अर्हन्नेव सर्वज्ञः' की तार्किक मीमांसा इस स्तोत्र में अत्यन्त सहज भाव से हुई है, मंगलाचरण स्वरूप लिखे गये किसी विशेष श्लोक के प्रमेय को व्याख्यापित करने के लिये नहीं। आप्तमीमांसा स्तोत्र में जो प्रमेय अवतरित हुआ है, वह अत्यन्त स्पष्ट है और हमें समन्तभद्र की विलक्षण प्रतिभा का आभास करा देता है। आचार्य समन्तभद्र नानाशास्त्रों के अध्येता एवं जैन-जैनेतर दार्शनिक सिद्धान्तों के मर्मज्ञ विद्वान् थे। उन्होंने अपने आराध्य या उपास्य आप्त पुरुष को सर्वज्ञ स्वीकार किया है जिसकी तार्किक सिद्धि करना ही उन्हें