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अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014 अभीष्ट रहा है। मोक्ष मार्ग के नेतृत्व और कर्मभूभृत् के भेतृत्त्व को सिद्ध करने वाली प्रतिपत्ति हमें यहाँ दिखाई नहीं देती है फिर हम यह कैसे कह सकते हैं कि “मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम्। ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये।।" - यह मंगलाचरण समन्तभद्र के सामने था और उन्होंने उसमें प्रतिपादित आप्त की ही व्याख्या आप्तमीमांसा स्तोत्र में की है। अपने आप्त को वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी के रूप में जानना और समझना उन्हें केवल तत्त्वार्थसूत्र से ही नहीं तदितर वाड्.मय से भी संभव था। अतः यह कहना कि उपर्युक्त श्लोक उनके सामने था और उससे प्रेरित होकर ही उन्होंने आप्त की मीमांसा की, यह समीचीन एवं अपरिहार्य नहीं माना जा सकता है। उस श्लोक के बिना ही आप्त की मीमांसा करना समन्तभद्र के लिये असम्भव था, यह नहीं माना जा सकता है।
आप्त मीमांसा स्तोत्र ११४ अनुष्टुम छन्दों में अपने प्रमेय को प्रस्फुटित करता है। जिसे विषय निरूपणा की दृष्टि से दश परिच्छेदों में विभाजित करना टीकाकारों को अभीष्ट रहा है। उसी अनुक्रम से उसकी कुछ झलक यहाँ प्रस्तुत है - प्रथमपरिच्छेद -
प्रथमपरिच्छेद का प्रमेय तेईस छन्दों में अपने अनूठे वैशिष्ट्य को लिये हुये उपस्थित हुआ है। आरम्भ के छह छन्दों में ही आचार्य समन्तभद्र न अपने आप्त पुरुष (अर्हत्परमेष्ठी) का समुल्लेख बिना किसी नामोल्लेख के कर दिया है। क्या विलक्षण शैली है उनकी? विचार करोगे तो पायेंगे कि स्तोत्र के रूप में ख्यात उनका यह मंगलाचरण विषयक स्तवन कितनी सशक्त प्रेरणा है और कितना बहुमूल्य है। मानों हमें ही तो सचेत कर रहा है कि अपने आराध्य या उपास्य को हम आप्त की मर्यादा में जाने और उनकी शरण में जाने से पहले भक्तिभाव प्रसूनपुञ्ज होकर भी उनके बारे में सोचें अवश्य। उनके निर्दोष व्यक्तित्त्व पर ही रीझें, दिखाई देने वाले बाह्य व्यक्तित्व पर ही लूट नहीं हों, परमार्थशून्य ढकोसलों में उलझें नहीं, निर्णय अवश्य करें तथा अपने निर्णय को तर्क की कसौटी पर कसकर ही किसी को आप्त मानें। देखिये समन्तभद्र क्या कह रहे हैं - "देवों का आना, आकाश में गमन, छत्र चामरादिक विभूतियाँ आपकी हैं पर इस कारण से तुम महान् नहीं हो क्योंकि