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अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014 मरण के उपस्थित होने पर पराक्रमरहित साधक के होता है। उक्त प्रस्तुति से ऐसा लगता है कि आचार्य का यहाँ मंतव्य यह है कि पराक्रमी, बलयुक्त और साहसी साधु मरण से पूर्व समय रहते ही सचेत हो जाता है और योग्य कारण उपस्थित होने पर सविचार भक्तप्रत्याख्यान को धारण कर लेता है।
आचार्य के अनुसार सविचार भक्तप्रत्ख्यान की सबसे पहली शर्त है अर्हता की। उनके मत में जिसके दुष्प्रसाध्य व्याधि हो या श्रमण धर्म को प्रभावित करने वाली अर्थात् हानि पहुँचाने वाली वृद्धावस्था हो या देवकृत, मनुष्यकृत या तिर्यचकृत ऐसा उपसर्ग हो, जिसमें आगे के जीवन की आस क्षीण हो गई हो, वही भक्तप्रत्याख्यान के योग्य होता है, वे और आगे कहते हैं कि अनुकूल बंधु-मित्र शत्रु हो गए हों जो चारित्र का विनाश करने वाले हों, भयंकर दुर्भिक्ष हो या भयंकर जंगल में भटक गया हो और जहाँ से निकलने की आस न रह गई हो, जिसकी दृष्टि दुर्बल हो गई हो या कान दुर्बल हो गए हों, या जंघाबल क्षीण होने के कारण विहार करने में जो असमर्थ हो गया है, वही भक्तप्रत्याख्यान के योग्य होता है। इसके आगे वे और कहते है। कि उक्त कारणों के समान अन्य भी कोई प्रबल कारण उपस्थित हो जाए, तो भी साधक भक्तप्रत्याख्यान के योग्य हो जाता है।
इसके विपरीत जिसके चारित्र का पालन चिरकाल तक बिना किसी क्लेश के अतिचार रहित अच्छी तरह हो सकता हो, समाधिमरण कराने योग्य निर्यापक आचार्य उपलब्ध हों, परन्तु दुर्भिक्ष का भय आदि अन्य कारण न हों
और यदि वह मरण कराने की प्रार्थना करता है, तो वह मुनिपद से विरक्त होता है -
उस्सरइ जस्स चिरमवि सुहेण सामण्णमणदिचारं वा। णिज्जावया य सुलहा दुब्भिक्खभयं च जदि णत्थि। तस्स ण कप्पदि भत्तपइण्णं अणुवदि भये पुरदो। सो मरणं पच्छिंतो होदि हु सामण्णणिविण्णो।
- भगवती आराधना, ७४-७५ इससे स्पष्ट है कि भक्तप्रतिज्ञा ग्रहण करने व कराने से पहले ग्रहार्थी को व कराने वाले निर्यापक आचार्य को ग्रहार्थी की अर्हता की परीक्षा कर लेना आवश्यक है, यदि ऐसा नहीं किया गया, तो सल्लेखना सल्लेखना न