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अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014 क्यों?.... संथारा, सल्लेखना या समाधिमरण का संकल्प लेने वाला व्यक्ति जीवन से हारा हुआ व विकार सहित विचार वाला नहीं होता, इसीलिए वह हर्ष से मृत्यु को गले लगाता है, जबकि आत्महत्या या आत्मघात या आत्महिंसा करने वाला व्यक्ति जीवन से हारा हुआ व मस्तिष्क में विकारों से भरा हुआ होता है, इसलिए वह विषाय से शरीर छोड़ता है अर्थात् गहरे विषाद में उसकी मृत्यु होती है, इसलिए सागारधर्मामृत में पं. आशाधर जी लिखते हैं कि जिसका विनाश निश्चित है, उस शरीर के लिए इच्छित वस्तु को देने वाले धर्म का घात नहीं करना चाहिए, क्योंकि शरीर नष्ट हुआ तो पुनः अवश्य प्राप्त होगा, किन्तु धर्म अर्थात् समाधिमरण तो अत्यन्त दुर्लभ है, वे और उल्लेख करते हैं कि स्वीकार किये गये व्रतों के विनाश के कारण उपस्थित होने पर जो विधि के अनुसार भक्तप्रत्याख्यान आदि के द्वारा समभाव से शरीर छोड़ता है, उसे आत्मघात का दोष नहीं लगता; क्योंकि क्रोधादि के आवेश से जो विषपान करके या शस्त्रघात द्वारा या पानी में डूबकर अथवा आग लगाकर प्राणों का घात करता है, उसे आत्मघात का दोष लगता है। यथा -
कायः स्वस्थोऽनुवर्त्यः स्यात् प्रतीकार्यश्च रोगितः। उपकारं विपर्यस्यंस्त्याज्यः सद्भिः खलो यथा।। नावश्यं नाशिने हिंस्यो धर्मो देहाय कामदः। देहो नष्टो पुनर्लभ्यो धर्मस्त्वत्यंतदुर्लभः।। न चात्मघोतोऽस्ति वृषक्षतौ वपुरुपेक्षितुः। कषायावेशतः प्राणान् विषाद्यैःहिंसतः स हि।।
-सागारधर्मामृत, ८/६-७-८ इससे स्पष्ट है कि संथारा, सल्लेखना या समाधिमरण आत्महत्या या आत्मघात या आत्महिंसा नहीं है, जैसाकि कुछ लोग नासमझीवश मानने लगे गए हैं। सन्दर्भ : ८. भगवती आराधना की विजयोदया टीका, गाथा-२८ ९. णवरिं तणसंथारो पाओवगदस्स होदि पडिसिद्धो। आदमरपओगेण य पडिसिद्धं सव्वपरियम्भ।। - भग. आराधना, गाथा-२०५८ १०. एवं णिप्पडियम्मं भणंति पाओवगमणमरहंता।