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अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014 सम्यक्दर्शन के सहारे पुनः मोक्षमार्ग का ज्ञान प्राप्त कर अभ्यास को दुहराता
है।
आचार्य अमृतचन्द्र ने मंगलाचरण में अनेकान्त को इसलिए नमस्कार किया कि वह जैनागम का प्राण है। अनेकान्त का वैशिष्टय है कि - “यदि दृष्टि में अनेकान्त, वाणी में स्याद्वाद और आचरण में अहिंसा हो तो- लौकिक और विश्व के विवादों का शांतिपूर्ण ढंग से हल निकाला जा सकता है। ये ३ सूत्र पुरुषार्थसिद्धि के भी सशक्त साधन या उपाय हैं। बिना अनेकान्त दृष्टि के ज्ञान- अधूरा होता है। अनेकान्त में निश्चय और व्यवहार दोनों नयों का एक सार्थक समन्वय है। यदि लोक में जीना है तो लोक-व्यवहार बनाकर चलो। यदि लोकोत्तर होना चाहते हो तो शुद्ध सम्यक्दृष्टि बनकर लोक व्यवहार से ऊपर उठकर आत्मा की निश्चय दृष्टि अपनानी होगी।
उक्त पुरुषार्थों में ‘मोक्ष-पुरुषार्थ', जीव का अन्तिम व अभीष्ट लक्ष्य है। उसे प्राप्त करने के उद्देश्य से ही ग्रन्थ में पुरुषार्थसिद्धि के उपायों का विवेचन है। जिसे प्रमुख पाँच भागों में विभक्त किया जा सकता है।
(i) सम्यक्त्व- विवेचन (ii) सम्यग्ज्ञान- व्याख्यान (iii) सम्यक्-चारित्र व्याख्या (iv) सल्लेखना व समाधिमरण तथा (v) सकल चारित्र व्याख्यान।
उपदेश सुनने के अभिलाषी को, पहले मुनिधर्म का उपदेश देना चाहिए और वह यदि मुनिधर्म ग्रहण करने के योग्य सामर्थ्य न रखता हो तो बाद में श्रावकधर्म का उपेदश देवें। मूल लक्ष्य श्रमण धर्म का पालन करते हुए मोक्षमार्गी बनाना है, जहाँ सकल चारित्र का पालन किया जाता है। वस्तुतः उपदेश तो महाव्रत धारण करने का दिया जाता है परन्तु जीव के कल्याण हेतु क्रमिक देशना का व्याख्यान कर श्रावक धर्म का उपदेश आचार्य ने किया। श्रावक धर्म का व्याख्यान करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं
एवं सम्यग्दर्शन बोध चारित्रत्रयात्मको नित्यम्।
तस्यापि मोक्षमार्गो भवति निषेव्यो यथाशक्तिः।।२०।। मुनिराज तो मोक्षमार्ग का सेवन पूर्णरूप से करते ही हैं, किन्तु गृहस्थ को भी यथाशक्ति सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञान और सम्यक्-चारित्र की एकता जो मोक्षमार्ग है, का पालन करना चाहिए। अब यहाँ तीनों का स्वरूप संक्षेप