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अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014
विशुद्धि के द्वारा प्रतिसमय अनन्तगुण हीन होते हुए उदीरणा (नियत काल से पूर्व बद्धकर्मों का उदय में लाकर भोगना) को प्राप्त होते हैं उस समय क्षयोपशम लब्धि होती है। विशुद्धि लब्धि - क्षयोपशम लब्धि के प्रभाव के बन्ध का कारण धर्मानुराग रूप शुभ भावों की प्राप्ति होना विशुद्धि लब्धि है।
इस प्रकार क्षयोपशम लब्धि से साता वेदनीय आदि प्रकृतियों के बन्ध का कारण धर्म अनुराग रूप शुभ भावों की प्राप्ति होती है वह विशुद्धि लब्धि
है।
देशना लब्धि - ६ द्रव्य, नवपदार्थों के उपदेश देने वाले आचार्य आदि का मिलना, उपदेश की प्राप्ति होना, उसके स्वरूप को धारणा में लेना देशना लब्धि है।
नरक आदि में जहाँ पर उपदेश देने वाले नहीं हैं वहाँ पर पूर्व जन्म में जो तत्त्व स्वरूप जाना था उसके संस्कार के बल से सम्यग्दर्शन हो जाता है।
जीव को द्रव्य पदार्थों को बताने वाले आचार्य आदि का समागम, उपदेश का ग्रहण और धारण करने का लाभ देशना लब्धि में होता है। प्रायोग्य लब्धि - सर्वकर्मो की उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभाग को तीन लब्धियों सहित जीव जब समय-समय विशुद्धता को बढ़ाते हुए आयु कर्म के अलावा सात कर्मों की स्थिति अंतःकोडाकोडि सागर शेष रह जाये। घातियां कर्मों का अनुभाग- रस, दाक और लता रूप बचताहै और अघातियाँ कर्मों का अनुभाग-निबं- कांजीर रूप बचता है। ऐसा कार्य करने की योग्यता की प्राप्ति, वह प्रायोग्य लब्धि है।
यह भव्य और अभव्य दोनों के हो सकती है।
इस प्रकार तीन लब्धि-क्षयोपशम, विशुद्धि और देशना लब्धि सहित जीव प्रति समय विशुद्ध होता है और अप्रशस्त प्रकृतियों के अनुभाग को द्विस्थानीय (लता दारू, अस्थि-शेल में से लता-दारू रूप) करता है। करण लब्धि - करण कषायों की मन्दता से होने वाले विशुद्धिरूप आत्म परिणाम।
(अ) अधःकरण (ब) अपूर्वकरण और (स) अनिवृत्तिकरण