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अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014
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मिलते हैं, साथ ही प्राचीन शिलालेखों में भी मिलते हैं । 'भि' विभक्ति पालि के प्राचीन साहित्य में मिलती है। वर्तमान कृदन्त 'मीन' अशोक के शिलालेखों में मिल रहा है। भूतकाल का 'इ' प्रत्यय इसिभासियाइं तथा पालि भाषा में प्राप्त हो जाता है।
निष्कर्ष :
इस प्रकार निष्कर्षतया कहा जा सकता है कि परंपरा की दृष्टि से अर्धमागधी का उद्भव भगवान् ऋषभदेव के समय में हुआ है और वर्तमान अवसर्पिणी काल के वे प्रथम अर्धमागधी प्रयोक्ता थे । अर्धमागधी भाषा का वह प्रवाह भगवान् महावीर काल तक विभिन्न रूपों में प्रवाहित होता हुआ पहुंचा था, अतः भ. महावीर अर्धमागधी के उस भाषा - स्वरूप के अंतिम प्रयोक्ता थे। भगवान् महावीर के परवर्ती साधकों में भाषातिशय की उपलब्धि न होने के कारण उस भाषा का स्वरूप आगे नहीं बढ़ सका। वर्तमान में हम जिस अर्धमागधी भाषा को जानते हैं वह भगवान् महावीर के परवर्ती काल की भाषा है। स्वरूप की दृष्टि से उसमें कुछ वैभिन्य दृष्टिगोचर होता है। अर्धमागधी भाषा प्राकृत भाषा परिवार की एक सप्राण शाखा है। उसका अस्तित्त्व स्वतंत्र है। वह न तो मागधी और शौरसेनी का मिश्रण है न महाराष्ट्री की कोई शाखा विशेष है। आगमों के अनुसार अर्धमागधी भाषा का रूप-गठन आरह प्रकार की देशी भाषाओं से मिलकर हुआ है। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि अर्धमागधी मात्र आधे मगध की भाषा न होकर एक विस्तृत भूभाग की भाषा रही है तथा उस जमाने में इसकी लोकप्रियता इतनी अधिक थी कि तीर्थंकर महावीर ने इसे 'आर्यभाषा' बताते हुए 'देवताओं को भी अत्यन्त प्रिय' लगने वाली भाषा कहा है। इससे इसकी महिमा और गरिमा का भी बोध हो जाता है।
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