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अनेकान्त 671, जनवरी-मार्च 2014
कुव्वंति बहिलेस्सा ण होइ सा केवला सुद्धी॥ अविगु पि तवं जो करेइ सुविशुद्धसुक्कलेस्साओ। अज्झवसाणविशुद्धो सो पावदि केवलं सुद्धिं।। अज्झवसाणविसुद्धी कसायसल्लेहणा भणिदा।।
- भगवती आराधना, २५८-६१ भगवती आराधना में सीधे 'समाधिमरण' या मरणसमाधि' शब्दों का बहुशः पारिभाषिकों की तरह उल्लेख कर किसी स्थान विशेष पर आचार्य शिवार्य ने विश्लेषण प्रस्तुत नहीं किया है, जबकि प्रकारांतर से पूरा ग्रंथ ही 'समाधिमरण' या मरणसमाधि' को व्याख्यायित करने के लिए उन्होंने रचा है। एक स्थान पर वे उल्लेख करते हैं कि जो पाँच प्रकार की शुद्धियों और पाँच प्रकार के विवेक को बिना प्राप्त किये मरण को प्राप्त होते हैं, वे समाधि को नहीं हो पाते हैं और इसके ठीक विपरीत निश्चित मति वाले जो पाँच प्रकार की शुद्धियों और पाँच प्रकार के विवेक को प्राप्त कर चुक हैं, वे निश्चय से परम समाधि को प्राप्त होते हैं -
पंचविहं जे सुद्धिं अपाविदूण मरणमुवणमंति। पंचविहं च विवेगं ते खु समाधि ण पावेंति।। पंचविहं जे सुद्धिं पत्ता णिखिलेण णिच्छिदमदीया। पंचविहं च विवेगं ते हु समाधि परमुवेंति।
- भगवती आराधना, १६६-१६७ ये पाँच प्रकार की शुद्धियाँ हैं - १. आलोचना, २. शय्या, ३. संस्तर और परिग्रह (उपधि), ४. भक्तपान, तथा ५. वैयावृत्य करने वालों की शुद्धि अथवा १. दर्शन, २. ज्ञान, ३. चारित्र, ४. विनय तथा ५. आवश्यकों की शुद्धि। इसीप्रकार पाँच प्रकार के विवेक हैं- १. इंद्रिय, २. कषाय, ३. उपधि, ४. भक्तपान, तथा ५. देह का विवेक अथवा १. शरीर, २. शय्या, ३. संस्तर और परिग्रह (उपधि), ४. भक्तपान, तथा ५. वैयावृत्य करने वालों का विवेक एवं ये विवेक द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार के होते हैं।'
अब बात भगवती आराधना के संदर्भ से प्रशस्तमरण' और 'पंडितमरण' की, की जानी अपेक्षित है। यद्यपि भगवती आराधना में ‘प्रशस्तमरण' का उल्लेख करते हुए सीधे उसकी व्याख्या नहीं प्रस्तुत की गई है, तथापि एक