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अनेकान्त 67/1, जनवरी-मार्च 2014
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अत्तते (विपा. ४, टि), ‘ज्’ को ‘य्'- प्रजात > पयाय, कामध्वजा > कामज्झया, आत्मज > अत्तय इत्यादि।
४. अनादि, असंयुक्त 'त्' प्रायः बना रहता है तथा कहीं-कहीं उसके स्थान पर 'य्' भी हो जाता है, जैसे- वन्दते > वंदति (आत्मने पद की क्रिया परस्मैपद में परिवर्तित है), नमस्यति > नमंसति, पर्युपास्ते > पज्जुवासति (सूअ० २,७), जितेन्द्रिय > जितिंदिय (सूअ. २,६, ५) सतत > सतत (१, १, ४, १२) आकृति > आगिति, करतल > करयल (यहाँ 'त्' > 'य' हुआ है) इत्यादि।
क्रमशः अगले अंक में.... संदर्भ : १. जैन भाषा-दर्शन, प्रो. सागरमल जैन, प्र. भोगीलाल लहेरचंद भारतीय संस्कृति संस्थान, दिल्ली-पाटण १९८६। २. ऋषभं मा समानानां अपन्नानां विषासहिम्। हन्तारं शत्रूणां कृधि विराजं गोपति गवाम्।ऋग्वेद १०/१६६/१। अष्टमें मरुदेव्यां तु नाभेर्जात उरुक्रमः। दर्शयम् वर्त्म धीरा, सर्वाश्रम नमस्कृत्यम्।।-श्रीमद्भागवत् १/३/१३। इत्यादि के अतिरिक्त भागवत पुराण, मनुस्मृति, अथर्ववेद, यजुर्वेद, नागपुराण, शिवपुराण, हठयाग प्रदीपिका आदि में ऋषभदेव का अनेकमों बार उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद एवं अथर्ववेद में तो उनके नाम पर अनेकों मंत्रों का प्रणयन हुआ है, जिनमें उनकी स्तुति अहिंसक, आत्म-साधकों में प्रथम, -अवधूत चर्या' के प्रणेता, प्रथम अमरत्व या महादेवत्व पाने वाले महापुरुष के रूप में हुई है। ३. आ. सुभद्र मुनि जी, विश्व मैत्री पत्रिका, आदिनाथ जन्म-जयंती विशेषांक, अप्रैल-मई २०१३, पृष्ठ-२३ ४. वाचनाचार्य डॉ. विशाल मुनि जी, विश्व मैत्री पत्रिका, आदिनाथ जन्म-जयंती विशेषांक, अप्रैल-मई, २०१३, पृष्ठ-२८ ५. उसभे इ वा, पढम राया इ वा, पढमभिक्खायरे इ वा, पढम जिणे इ वा, पढम तित्थयरे इ वाकल्पसूत्र, सूत्र-१९४ ६. आ. सुभद्र मुनि जी, विश्व मैत्री पत्रिका,आदिनाथजयंती विशेषांक,अप्रैल-मई २०१३, पृष्ठ-२५ ७. श्रीमद्भागवत २/७/१० ८. यजुर्वेद, अ. ३१, मंत्र-८-९ ९. वैदिक धर्मशास्त्रों में भगवान ऋषभदेव चरित्र, विश्व मैत्री पत्रिका, अप्रैल-मई २०१३, पृ. ४६ १०. कल्पसूत्र, सूत्र-१९४, तथा जैन चारित्र कोश, आ.सुभद्र मुनि, मुनि मायाराम सम्बोधि प्रकाशन, दिल्ली, २००६, पृष्ठ-७६ ११. समवायांग सूत्र, अंगसुत्ताणि खण्ड-३, ३४वाँ समवाय, पृ.८८०, जैन विश्व भारती लाडनूं १२. औपपातिक सूत्र, उवंगसुत्ताणि खण्ड-१,सू. ७१, पृ. ४६, जैन विश्व भारती लाडनूं-१९८७ १३. नन्दीसूत्रम्, व्या. आ. आत्माराम जी म., नन्दीसूत्र-दिग्दर्शन, पृ. २१ १४. अंगसुत्ताणि खण्ड-२, भगवई, शतक-५, उद्देशक-४, सू. ९३, पृ. २०४,जैन वि.भा. लाडनूं १५. अंगसुत्ताणि खण्ड-२, पण्णवणा, पढम अज्झयण, सू. ९८, पृ. ३३,जैन वि.भा. लाडनूं