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अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014 के ग्रहण और छह कारणों से आहार के त्याग का विवेचन किया है। आहार ग्रहण के छह कारण हैं -
१. वेदना शमन, २. वैयावृत्ति, ३. क्रियासम्पन्नता, ४, संयम, ५. प्राणों की चिन्ता तथा ६. धर्म की चिन्ता। इसी प्रकार आहार त्याग के छह कारण हैं - १. आतंक उपस्थिति, २. उपसर्ग, ३. ब्रह्मचर्य-रक्षा, ४. प्राणि-दया, ५. तप और ६. संन्यास। वहाँ कहा गया है कि श्रमण बल, आयु, स्वाद, शरीरपुष्टि या तेज के लिए आहार ग्रहण न करें, अपितु ज्ञान, संयम एवं ध्यान के लिए आहार ग्रहण करें। आचार्य कुन्दकुन्द का कहना है कि जो साधु भोजन में अति आसक्ति रखते हैं, प्रमादी होते हैं, वे तिर्यच योनि/ पशु-तुल्य होते हैं। ऐसे साधुओं से गृहस्थ श्रेष्ठ होते हैं। जो साधु आहार के लिए दौड़ता है, आहार के लिए कलह कर आहार ग्रहण करता है, उसके लिए अन्य से परस्पर ईर्ष्या करता है, वह जिन श्रमण नहीं है। जो बिना दिया आहार आदि लेता है, वह श्रमण चोर के समान है।
श्रमण प्रासुक भोजन ही ग्रहण करते हैं। यदि प्रासुक भोजन भी अपने लिए बना हो तो वह भाव से अशुद्ध ही समझना चाहिए। श्रमण को द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव एवं बल को जानकर जिनमतोक्त एषणा समिति का पालन करना चाहिए। श्रमण उदर का आधा भाग भोजन से, तीसरा भाग जल से भरे और चौथा भाग वायु के संचरण के लिए खाली रखे। (२) विहारशुद्धि का विधान करते हुए मूलाचार में कहा गया है कि परिग्रहरतिनिरपेक्ष स्वच्छन्दचारी साधु वायु के समान नगर, वन आदि से युक्त पृथिवी पर उद्विग्न न होकर भ्रमण करता रहे। पृथिवी पर विहार करते हुए वह किसी को पीड़ा नहीं पहुचावे। जीवों के प्रति उसी प्रकार दयाभाव रखे, जिस प्रकार माता पुत्रों पर दया रखती हैं। शिवार्य ने भगवती आराधना में कहा है कि अनेक देशों में विहार करने से क्षुधा भावना, चर्या भावना आदि का पालन होता है। अनेक देशों में मुनियों के भिन्न-२ आचार का पालन होता है तथा विभिन्न भाषाओं में जीवादि पदार्थों के प्रतिपादन का चातुर्य प्राप्त होता है। विहारकाल में मुनि के विशुद्ध परिणामों का कथन करते हुए श्री बट्टकेराचार्य ने कहा है कि वे उपशान्त, दैन्य से रहित, उपेक्षा भाव वाले, जितेन्द्रिय, निर्लोभी, मूर्खता रहित और कामभोगों में विस्मयरहित