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अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014
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अनियन्त्रित तो नहीं रहे हैं। जो मुनि आगम को न जानते हुए आचार्यपने को प्राप्त हो जाता है, वह अपने को नष्ट करके पुनः अन्यों को भी नष्ट कर देता है।२२
आज यदि हम कतिपय श्रमणों के व्यावहारिक पक्ष पर गंभीरता से विचार करते हैं तो हमें निम्नलिखित कतिपय विसंगतियाँ दृष्टिगत होती हैं, जिनका उल्लेख हम केवल इस पवित्र भावना से करना चाहते हैं कि श्रमण एवं श्रावक मिलकर एक ऐसा प्रयास करें कि दोनों अपने-अपने धर्म का पालन करते हुए मोक्षमार्ग को प्रशस्त बना सकें।
१. संघ में संचालिकाओं एवं ब्रह्मचारिणी बहनों की गहरी पैठ और उसके कारण संघ में पनपा शिथिलाचार या बढ़ते मिथ्या आरोप, जिसके कारण जैन एवं जैनेतर समाज में हो रही जैनों की गरे।
२. मुनि एवं आर्यिकाओं की एक भवन में सहस्थिति तथा इसके कारण साधु संस्था पर लगने वाले शिथिलाचार ही नहीं, अनाचार तक के आरोप।
३. साधु संस्थाओं द्वारा स्वनिर्मित योजनाओं के लिए स्वयं धनसंचय, हिसाब-किताब रखना तथा उनकी एक सद्गृहस्थ की मर्यादा से भी हीन स्थिति।
४. संघ में लौकिक साधन टी. वी., कूलर, सेलफोन, ए.सी., लेपटॉप आदि का बढ़ता उपयोग तथा उन्हें उपकरण दान मानकर समाज को उपदेश।
५. अपने नाम पर भक्तों का संगठन खड़ाकर श्रावकों को विभक्त बनाना तथा उनसे या उनके माध्यम से प्रभावित कराके पद पाना या तरह-तरह की लौकिक उपाधियों को प्राप्त करना।
६. मोक्षमार्ग का उपदेश न देकर भीड़ के रुख के अनुसार हास्योत्पादक विकथाओं का कथन तथा भीड़ से लोकप्रियता का बखान।। ७. बड़े-बड़े नेताओं (मांसाहारी एवं दुष्कर्मी तक) को धर्मसभाओं में बुलवाकर दैनिक आवश्यकों की परिहानि तथा नेताओं के माध्यम से शस्त्रधारी अंगरक्षकों की प्राप्ति।