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अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014
साधु को तन्त्र-मन्त्र की सेना के साथ देखें तो विश्वास करलें कि उन्हें जैनागम का ठोस ज्ञान नहीं है। फलतः भटकन की चर्या में जी रहे हैं। उनके पास दो-दो चार-चार श्रावकों के समूह में जावें और कर्म सिद्धान्त का अध्ययन करने को मनावें। जो मान जावें, उनमें परिवर्तन की प्रतीक्षा करें और जो न मानें, उन्हें धर्म की दुकान चलाने वाला व्यापारी मानें। ऐसा व्यापारी जिसे अपने लाभ और यश की चिन्ता है, परन्तु समाज और धर्म की नहीं।"२३
यद्यपि इस समय कतिपय साधुओं में आहार, विहार एवं व्यवहारगत विसंगतियाँ दावानल की तरह वृद्धिंगत हो रही हैं, इनका रुकना भी असाध्य सा लग रहा है, तथापि श्रमणों की प्रवृत्ति मूलाचार, भगवती आराधना, अष्टपाहुड के स्वाध्याय के प्रति जागृत हो - ऐसा श्रावकों के द्वारा यथासंभव प्रयास किया जाना चाहिए।
श्री ऐलक सुध्यान सागर जी ने आज से लगभग २५ वर्ष पूर्व एक विज्ञप्ति प्रकाशित कराई थी।४ उसे श्रमणचर्या की विसंगतियों का प्राथमिक निदान मानकर उद्धृत कर रहा हूँ :
___“जितनी हमारी जैन संस्थायें हैं, उनके पदाधिकारीगण मिलकर आजकल साधुवर्ग में जो शिथिलाचार की वृद्धि हो रही है, उसको दूर करने का प्रयत्न करें तो मूलसंघातिपति प. पूज्य १०८ अजितसागर जी का आशीर्वाद तथा आदेश लेकर प्रत्येक शिथिलाचार का पोषण करने वाले आचार्य साधुओं के पास पहुंचे, उनसे शान्ति से स्पष्ट कहें कि जो जो आगमविरुद्ध क्रिया उनसे हो रही है, जैसे- एकाकी रहना, एक स्त्री साध्वी को रखना, चन्दा-चिट्ठा करना, गंडा ताबीज बेचना, बस (मोटर) वाहन रखना, संस्था बनाकर वहीं पर जम जाना, कूलर, फ्रीज, पंखा, वी.सी.आर., टेलीविजन आदि जिनागम के विरुद्ध वस्तुओं का रखना तथा उपयोग करना एवं जवान कन्याओं को साथ रखना, उनका संसर्ग करना, एकाकी साध्वी को बगल के कमरे में सोने देना इत्यादि धर्मह्वास क्रियाओं को अवश्य रोकना चाहिए। साम, दाम, दण्ड, भेद से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा रखते हुए अवश्य धर्म की संरक्षा करना चाहिए।"