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अनेकान्त 67/1, जनवरी-मार्च 2014
एक विस्मृत गाँधी
• डॉ. रवीन्द्र अग्निहोत्री आज ‘गाँधी' नाम सुनते ही हमारे मन में या तो वर्तमान पीढ़ी के उन राजनीतिज्ञों के चित्र उभरते हैं जो वस्तुतः नेहरू जी से सम्बन्धित हैं या फिर उस गाँधी की याद आती है जिसने स्वतंत्रता आन्दोलन में राजनीति और समाज सुधार का समन्वय किया, भारतीय संस्कृति के दो अनमोल सिद्धांतों (सत्य और अंहिसा) का अपने कार्यों में प्रयोग किया और इसीलिए जिसे सारा विश्व 'महात्मा' का सम्मान देता है। पर इनसे पहले का एक और गाँधी भी है जिसने भारत का नाम विश्व पटल पर अंकित किया। उस गाँधी का सम्बन्ध अमरीका के शिकागो शहर में आयोजित उस धर्म सम्मेलन (११ से २७ सितम्बर, १८९३) से भी है जिसे हमने स्वामी विवेकानंद (१८६३-१९०२) के साथ अनिवार्य रूप से जोड़ लिया है क्योंकि उसमें भाग लेने के बाद ही स्वामी जी का नाम देश-विदेश में प्रसिद्ध हुआ। उसी धर्म सम्मेलन में जैन धर्म के प्रतिनिधि के रूप में भाग लेने के कारण इस गाँधी की ख्याति भी दिग-दिगन्त में फैली थी। स्वामी विवेकानंद तो उस सम्मेलन में बिना निमंत्रण के स्वेच्छा से गए थे, पर वह गाँधी तो आमंत्रित अतिथि था। जहाँ तक सम्मेलन में दिए व्याख्यानों का सम्बन्ध है, इस गाँधी के व्याख्यानों की अमरीका के लगभग सभी समाचार-पत्रों ने, विद्वानों ने और मार्क ट्वेन साहित्यकारों ने भी मुक्तकंठ से प्रशंसा की। बफेलो कुरियर (Buffalo Courier) ने तो उसे ही उस सम्मेलन का सर्वाधिक प्रभावशाली वक्ता बताते हुए लिखा, 'पूर्व से आए सभी विद्वानों में यही युवक ऐसा था जिसके जैन धर्म और आचरण से सम्बन्धित व्याख्यान लोगों ने अत्यन्त रुचिपूर्वक और बहुत ध्यान देकर सुने (Of all Eastern schoolars, it was this youth whose lectures of Jain Faith and Conduct were listened to with the greatest interestand attention) | धर्म सम्मेलन के समापन पर उसे 'रजत पदक' से भी सम्मानित किया गया। इस सम्मेलन के बाद