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अनेकान्त 67/1, जनवरी-मार्च 2014 बीसवीं शताब्दी शुरू होते ही एक वर्ष के अंतराल पर दोनों महापुरुषों का निधन हो गया। तब अमरीका की एक पत्रिका में इन्हें श्रद्धांजलि देते हुए लिखा कि विवेकानंद के अनुयायियों ने तो विभिन्न संगठन बनाकर उनकी स्मृति को जीवित रखा है, पर यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वीरचंद गाँधी की स्मृति को सुरक्षित रखने का कोई प्रयास नहीं किया गया।
ऐसा प्रतीत होता है कि वीरचंद गाँधी जैसे मेधावी धर्म प्रचारक और समाज सुधारक देशभक्त की उपेक्षा करने के पीछे हमारे दकियानूसी विचार, देश के बजाय अपने संप्रदाय/उप-संप्रदाय को सर्वोपरि मानने की प्रवृत्ति और आपसी ईर्ष्या जैसे कारण प्रमुख थे। एक वास्तविकता यह भी है कि उस समय जैसी जागृति बंगाल में आ चुकी थी, वैसी गुजरात में नहीं आ पाई थी। कट्टरपंथी लोग तो समुद्र यात्रा के ही विरुद्ध थे। अतः कट्टरपंथियों ने तो उस समय भी वीरचंद गांधी की उपलब्धियों पर गर्व करने के बजाय उनकी निंदा की। स्वामी विवेकानंद के जिस पत्र का ऊपर उल्लेख किया गया है उसमें उन्होंने भी इस बात पर दुःख व्यक्त किया है कि वीरचंद गाँधी तो यहाँ देश और धर्म की सेवा कर रहे हैं, पर अपने ही देश में उनके प्रति दुर्व्यवहार किया जा रहा है। उस समय कूपमंडूक लोगों ने ऐसी निंदा स्वामी विवेकानंद की भी की थी, पर एक तो स्वामी जी के अधिकांश अनुयायी अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोग थे जिनके विचारों में आधुनिकता का समावेश हो चुका था। उन पर इस निंदा का कोई प्रभाव नहीं हुआ। दूसरे, स्वामी विवेकानंद ने अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस की स्मृति को सुरक्षित रखने के लिए जो प्रयास किए, उनके कारण वे स्वयं भी अमर हो गए, जबकि वीरचंद गाँधी ने ऐसा कोई प्रयास न तो स्वयं किया और न उनके अनुयायियों/ प्रशंसकों ने किया।
देश स्वतंत्र होने के बाद जब कुछ लोगों का ध्यान इस ओर गया तब तक बहुत देर हो चुकी थी। काफी समय तक अनेक लोग महात्मा गाँधी को ही वीरचंद गाँधी समझते रहे। अमरीका की एक महिला ने तो इसी आशय का पत्र भी गाँधी जी को लिख दिया। प्रसिद्ध अमरीकी लेखक मार्क ट्वेन जब भारत आए तो वीरचंद गाँधी के मेहमान बने, पर बाद के कुछ लेखकों ने उन्हें भ्रमवश महात्मा गाँधी का मेहमान बता दिया। शोधकर्ताओं का कहना है कि अनेक तथ्य अब नष्ट हो गए और अब लगभग दस प्रतिशत तथ्य ही