________________
अनेकान्त 671, जनवरी-मार्च 2014 है।
(२) दर्शनावरणीय कर्म आत्मा के दर्शन नामक चैतन्य गुण को आवृत्त करता है। इसकी नौ उत्तरप्रकृतियाँ हैं- निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला, स्त्यान गृद्धि तथा चक्षुदर्शनावरणीय अचक्षुदर्शनावरणीय,
अवधिदर्शनावरणीय और केवलदर्शनावरणीय। निद्रा कर्मेन्द्रिय से सजीव को निद्रा आती है। उसकी प्रगाढ़ अवस्था अथवा पुनः-पुनः वृत्ति को निद्रा-निद्रा कहते हैं। प्रचला कर्म के उदय से मनुष्य को ऐसी निद्रा आती है कि वह सोते-सोते चलने लगता है। अथवा अन्य व्यापार करने लगता है। प्रचला-प्रचला इसी का गाढ़तर रूप है। जिसमें उक्त क्रियायें बार-बार एवं अधिक तीव्रता से होती है। स्त्यानगृद्धि कर्मेन्द्रिय के कारण जीव स्वप्नावस्था में ही उन्मत्त होकर नाना रौद्र कर्म कर देता है। चक्षुदर्शनावरणीय कर्म के कारण नेत्रेन्द्रिय की दर्शन शक्ति क्षीण होती है। अचक्षुदर्शनावरणीय से शेष इन्द्रियों की शक्ति मन्द पड़ती हैं। तथा अवधि एवं केवल दर्शनावरणीय द्वारा उन दर्शनों के विकास में बाधा उपस्थित होती है।
(३) मोहनीय कर्म : जीव के मोह अर्थात् उनकी रूचि व चरित्र में अविवेक, विकार तथा विपरीतता आदि दोष उत्पन्न करता है। इसके मुख्य दो भेद हैं-दर्शन मोहनीय और चरित्र मोहनीय। इनके पुनः अनेक अवान्तर भेद होते हैं।
(४) अन्तराय कर्म : जीव के बाह्य पदार्थों के आदान-प्रदान और भोगोपभोग तथा स्वकीय पराक्रम के विकास में विघ्न बाधा उत्पन्न करने वाले अन्तराय कर्म कहलाते हैं। इनकी उत्तर प्रकृतियाँ पाँच हैंदानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय।
(५) वेदनीय कर्म : जो कर्म जीव को सुख या दुःख रूप वेदना उत्पन्न करता है उसे वेदयनीय कहते हैं। इनकी उत्तर प्रकृतियाँ दो हैंसातावेदनीय-सुख का अनुभव कराने वाली - असाता वेदनीय - दुःख का अनुभव कराने वाली।
(६) आयुकर्म ः जिस कर्म के उदय से जीव की आयु का देव, नर, मनुष्य या तिर्जग्जाति में निर्धारण होता है, वह आयु कर्म है और इसकी देवायु, नर-आयु, मनुष्यायु या त्रिर्यगायु - चार प्रकृतियाँ हैं।