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अनेकान्त 671, जनवरी-मार्च 2014
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ऋषभ-पुत्र' 'भरत' माने जाते हैं। इस प्रकार 'तिरासी लाख पूर्व' (काल विशेष) तक गृहस्थ अवस्था में रहते हुए ऋषभदेव ने तत्कालीन जनता को प्रायः समस्त भौतिक कर्मों से पारंगत बना दिया।
उस समय तक जनता 'धर्म' शब्द से भी अपरिचित थी। ऋषभदेव ने सामाजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था को पूर्ण करके अध्यात्म में प्रवेश करने का संकल्प किया और अपने राज्य के सौ विभाग करके सौ पुत्रों में बाँट दिया। भरत को अयोध्या का तथा बाहुबली को बहली (पोदनपुर) प्रदेश का राज्य मिला। शेष अनवे राजकुमारों को विभिन्न प्रदेश के राज्य प्राप्त हुए। इसके बाद ऋषभ ने एक वर्ष तक ‘वर्षीदान' किया, तदनन्तर 'चार हजार' साथियों के साथ 'दीक्षा' अंगीकार करके 'एक वर्ष तक की कठिन तपस्या पूर्ण की। एक हजार वर्ष की साधना के पश्चात् वे 'केवलज्ञानी' बने और 'तीर्थ' (साधु साध्वी, श्रावक, श्राविका) की स्थापना करके 'प्रथम तीर्थकर' कहलाए। वे एक लाख पूर्व' तक अर्हत अवस्था में रहे और तत्पश्चात् ‘माघ कृष्णा त्रयोदशी' को 'दस हजार मुनियों के साथ ‘अष्टापद' तीर्थ से सिद्ध, मुक्त हुए। इस प्रकार दान, दीक्षा, तपस्या आदि का सूत्रपात ऋषभ के द्वारा हुआ था। तीर्थकरों की उपदेश की भाषा अर्धमागधी :
आगम-भाषा सदाकाल से अर्धमागधी रही है। जैन परम्परा के अनुसार सभी तीर्थकर अर्धमागधी भाषा में प्रवचन एवं देशना तथा शिक्षा देते हैं, यथा-"भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्म आइक्खइ, सा वि य णं अद्धमागहीभासा भासिज्जमाणी तेसिं सव्वेसिं आरिय-मनारियाणं दुप्पय चउप्पय-मिय-पसु-पक्खि-सरिसिवाणं अप्पप्पण्णो हिय-सिवसुहदाय भासत्ताए परिणमइ"।११
तीर्थकर केवलज्ञानी होते हैं अतः संसार भर की सभी भाषाएँ उनके लिए सहज ही परिचित होती हैं तथापि सुकोमल और सर्वोत्तम होने के कारण वे अर्धमागधी भाषा में ही अपनी देशना प्रदान करते हैं। प्रभु के द्वारा उच्चरित वह भाषा आर्य, अनार्य, द्विपद, चतुष्पद आदि सबके लिए हितकर, शिवंकर एवं सुखप्रदात्री होती है। तात्पर्य यह है कि भगवान् के मुखारविंद से प्रस्फुटित उस भाषा को सभी अपनी-अपनी भाषा के अनुरूप समझ लेते