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अनेकान्त 671, जनवरी-मार्च 2014 प्रथम भिक्षाचर, (४) प्रथम जिन और (५) प्रथम तीर्थकर। जिनसेनाचार्य ने 'महापुराण' में '१००८' नामों से स्तुति करते हुए 'ऋषभ सहस्रनाम स्तोत्र' की रचना की है।
इस्लाम एवं ईसाइयत ने उन्हें 'बाबाआदम' अथवा 'आदम' एवं 'ईव' कहकर पुकारा है तो वैदिक परम्परा में वे विष्णु के अवतार के रूप में स्वीकृत हैं। यजुर्वेद में उन्हें “ॐ नमो अर्हतो ऋषभो” कहकर प्रणाम किया गया है। पुराण में ऋषभदेव को अवतार कहने का तात्पर्य बताते हुए स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती लिखते हैं - "मोक्षमार्ग विवक्षया अवतीर्णम्' अर्थात् मोक्षमार्ग का उपदेश देने के लिए भ. श्री ऋषभदेव जी ने अवतार लिया था, संसार की लीला दिखाने के लिए नहीं।
जैन परम्परा के अनुसार ऋषभदेव से पहले ‘अकर्मभूमि' थी जहाँ 'दस' प्रकार के 'कल्पवृक्षों' से मनुष्यों की सभी आवश्यकताएँ पूर्ण हो जाती थीं, किन्तु काल प्रभाव से कल्पवृक्ष घटने लगे और उनकी प्रदत्त-क्षमता भी कम होने लगी अतएव जनता के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए ऋषभदेव ने 'कर्मभूमि' का सूत्रपात किया और मनुष्यों को उपर्युक्त 'षट्-कर्मो' का ज्ञान देकर स्वावलम्बी बनाया। अर्थात् जब कुलकर व्यवस्था प्रभावहीन होने लगी तब देवों की प्रार्थना पर ऋषभदेव ने 'राजनीति' की आधारशिला रखी। राज्यव्यवस्था के नियम बनाए और यौगलिकों एवं देवों की प्रार्थना पर वे ही प्रथम राजा बने। उनकी राजधानी का नाम 'अयोध्या' पड़ा। इतना ही नहीं इन्हीं से 'विवाह प्रथा' का भी प्रारंभ हुआ। इनसे पूर्व के मनुष्य 'युगल' रूप में जन्म लेकर युगल रूप में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे अर्थात् उस समय की जनसंख्या निश्चित' हुआ करती थी, किन्तु ऋषभदेव ने सर्वप्रथम 'सुमंगला' और 'सुनन्दा' के साथ विवाह करके विवाहप्रथा का आरंभ किया था। इनके 'भरत', 'बाहुबली' आदि सौ पुत्र तथा दो पुत्रियाँ-'ब्राह्मी'
और 'सुन्दरी' थीं। इन्होंने ब्राह्मी के माध्यम से 'ब्राह्मी' आदि अट्ठारह लिपियों का, सुन्दरी के माध्यम से 'गणित' का तथा पुरुषों की '७२' कलाएँ, स्त्रियों की '६४' कलाएँ और १००' प्रकार के शिल्पकर्मों का ज्ञान जगत् को दिया। ऋषभदेव से ही वर्णव्यवस्था का प्रारंभ भी माना जाता है। इन्होंने क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र वर्ण की स्थापना की और ब्राह्मण वर्ण के संस्थापक