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अनेकान्त 67/1, जनवरी-मार्च 2014 थे। या यूँ कहें कि वह भाषा सभी की भाषाओं में परिणत हो जाया करती थी और यह कार्य तीर्थकर के "भाषातिशय" के कारण सम्भव हो जाया करता था। ऐसा नहीं कि इस अतिशय के स्वामी अकेले भगवान् महावीर थे अपितु सभी तीर्थकरों का यह अतिशय होता है। तीर्थकरों के द्वारा प्रयुक्त अर्धमागधी भाषा उसी भाषा में परिणत हो जाती थी जिसकी जो भाषा है, यथा-१२ “तए णं से समणे भगवं महावीरे कूणियस्य रण्णो भिंभिसारपुत्तस्स अद्धमागहए भासाए भासइ। अरिहा धम्मं परि-कहेइ।.....सा वि य णं अद्धमागहा भासा तेसिं सव्वेसिं आरियमनारियाणं अप्पणो सभासाए परिणामेणं परिणमइ”।
उपर्युक्त प्रमाणों से इस भाषा की सर्वोच्च विशेषता यही फलित होती है कि यह भाषा तीर्थकर के श्रीमुख से प्रस्फुटित होने पर सबकी अपनी-अपनी भाषा में परिणत हो जाया करती थी। ऐसा वैशिष्ट्य सामान्यतया अन्य भाषाओं में दृष्टिगोचर नहीं होता अतएव अर्धमागधी का अत्यन्त लोकप्रिय होना भी संभव हो जाता है।
प्रायः ऐसा समझा जाता है कि अर्धमागधी भाषा ‘आधे मगध की भाषा है', किन्तु वस्तुतः ऐसा नहीं है। इस बात की प्रसिद्धि का कारण मात्र शाब्दिक साम्यता है। वस्तुतः तीर्थकरों का अर्धमागधी में बोलना अनादि नियम है।१३ देवभाषा : अर्धमागधी:
अर्धमागधी भाषा की एक विशेषता है- 'उसका देववाणी होना।' भगवती सूत्र में भगवान् महावीर से गणधर गौतम पूछते हैं- भगवन् ! देव कौन-सी भाषा में बोलते हैं? कौन-सी भाषा उन्हें अभीष्ट है ? इसके उत्तर में तीर्थकर महावीर ने कहा- गौतम ! देव अर्धमागधी में बोलते हैं और वही भाषा उन्हें अभीष्ट एवं रुचिकर है, यथा- देवाणं भंते! कयराए भासाए भासंति? कयरा व भासा भासिज्जमाणी विसिस्सति ? गोयमा! देवाणं अद्धमागहाए भासाए भासंति।सा वि यणं अद्धमागहा भासा भासिज्जमाणी विसिस्सति।४ आर्यभाषा : अर्धमागधी :
प्रज्ञापना सूत्र में अर्धमागधी भाषा के प्रयोक्ता को भाषार्य कहकर सम्बोधित किया गया है-से किंतंभासारिया? भासारिया जेणं अद्धमागहाए