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अनेकान्त 67/1 जनवरी-मार्च 2014
पूर्वी भारत में प्रचलित भाषा के कतिपय लक्षण स्पष्ट रूपेण उपलब्ध हो जाते हैं। अनेक विद्वानों के द्वारा अर्धमागधी का मूल उत्पत्ति स्थान पश्चिम मगध और शूरसेन (मथुरा) का मध्यवर्ती प्रदेश 'अयोध्या' माना गया है। चूँकि तीर्थकरों के उपदेश की भाषा अर्धमागधी ही मानी गई है और तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव अयोध्या (विनिता नगरी) के निवासी थे । अतः अयोध्या
इस भाषा का उत्पत्ति स्थल मानना समीचीन ही है । प्रदेश की दृष्टि से अधिकांश विचारक इसे काशी - कौशल प्रदेश की भाषा मानते हैं।
जैन आगमों में सभी तीर्थकरों का उपदेश अर्धमागधी भाषा में होना बताया गया है।२८
वर्तमान में अर्धमागधी के उत्पत्ति समय को लेकर विद्वानों में किंचित् मतभेद है। सर आर. जि. भाण्डारकर अर्धमागधी का उत्पत्ति-समय ईसा की द्वितीय शताब्दी मानते है । उनके मत में कोई भी साहित्यिक प्राकृत भाषा ईसा की द्वितीय शताब्दी से पहले की नहीं है। संभवतया इसी मत का अनुसरण करके डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने समस्त नाटकीय प्राकृत भाषाओं का और जैन अर्धमागधी का उत्पत्ति काल ई. की तीसरी शती स्थिर किया है। परन्तु त्रिवेन्द्रम से प्रकाशित भास-रचित नाटकों का निर्माण समय अन्ततः ईसा की दूसरी शताब्दी के बाद का न होने से और अश्व-घोष कृत बौद्धधर्म विषयक नाटकों के जो कतिपय अंश डॉ. ल्युडर्स ने प्रकाशित किये हैं, उनका समय ईसा की प्रथम शताब्दी निश्चित होने से यह प्रमाणित होता है कि उस समय भी नाटकीय में जैन अर्धमागधी भाषा के निदर्शन हैं। इससे जैन अर्धमागधी की प्राचीनता का यह भी एक विश्वस्त प्रमाण है। इसके अतिरिक्त डॉ. जेकोबी जैन सूत्रों की भाषा और मथुरा के शिलालेखों (ई. सन् ८३ से १७६) की भाषा से यह अनुमान करते हैं कि जैन अंग-ग्रंथों की अर्धमागधी का काल ई. पूर्व चतुर्थ शताब्दी का शेष भाग अथवा ई. पूर्व तृतीय शताब्दी का प्रथम भाग है। डॉ. जेकोबी का अनुमान सत्य के काफी करीब है क्योंकि इसी दरम्यान पाटलिपुत्र में जैन मुनि संघ का सम्मेलन हुआ था जिसमें आगमों को सुसम्पादित किया गया था इस धारणा का कारण यह है कि अर्धमागधी के उपलब्ध प्रमाण उससे पूर्ववर्ती काल के प्राप्त नहीं होते, किन्तु इसका अर्थ कतई नहीं है कि उससे पूर्व अर्धमागधी भाषा न रही