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अनेकान्त 67/1, जनवरी-मार्च 2014 बारह वर्षीय दुष्काल का सामना आगमविदों को करना पड़ा था। इस भीषण परिस्थिति का परिणाम यह हुआ कि अनेक गीतार्थ श्रमण काल कवलित हो गए और उनके साथ-साथ उनके मस्तिष्क में सुरक्षित आगम ज्ञान की सम्पदा भी लुप्त होती चली गई।
दुष्काल के दौरान यत्र-तत्र बिखरे श्रमण धीरे-धीरे एकत्रित होने लगे, और भद्रबाहु के समय प्रथम मुनि सम्मेलन पाटलीपुत्र में आयोजित हुआ। इसके पश्चात् मुनि सम्मेलन पूर्वोत्तर भारत से दक्षिण भारत की ओर बढ़ता हुआ द्वितीय मुनि सम्मेलन मथुरा में तथा तृतीय मुनि सम्मेलन वल्लभी (सौराष्ट्र) में सम्पन्न हुआ। इन मुनि सम्मेलनों में आगमों को व्यवस्थित किया गया, किन्तु उन्हें लिपिबद्ध नहीं किया गया था।
इस सम्बन्ध में पं. हरगोविन्ददास टी. सेठ लिखते हैं - अर्धमागधी का उद्भव स्थल ‘अयोध्या' मान लेने पर भी जैन आगमों की अर्धमागधी में मागधी और शौरसेनी भाषा के विशेष लक्षण देखने में नहीं आते। बल्कि माहाराष्ट्री के साथ ही इसका अधिक सादृश्य नजर आता है। प्रश्न होता है कि इस सादृश्य का कारण क्या है ? सर ग्रियर्सन ने अपने प्राकृत भाषाओं के भौगोलिक विवरण में यह स्थिर किया है कि जैन अर्धमागधी मध्यदेश (शूरसेन) और मगध के मध्यवर्ती देश (अयोध्या) की भाषा थी एवं आधुनिक पूर्वीय हिन्दी उससे उत्पन्न हुई है।
किन्तु हम देखते हैं कि अर्धमागधी के लक्षणों के साथ मागधी, शौरसेनी और आधुनिक पूर्वीय हिन्दी का संबन्ध न होकर महाराष्ट्र प्राकृत और आधुनिक मराठी भाषा के साथ उसका सादृश्य अधिक है। इसके कारण के संबन्ध में विमर्श करने पर मालूम पड़ता है कि ईसा पूर्व ३१० अर्थात् चन्द्रगुप्त के राजत्वकाल में बारह वर्षों का अकाल पड़ने पर जैन मुनि संघ पाटलीपुत्र से दक्षिण की ओर विहार कर गया था। उस समय वहाँ के 'प्राकृत के प्रभाव से अंग-ग्रन्थों की भाषा का कुछ-कुछ परिवर्तन हुआ था। यही महाराष्ट्री प्राकृत का आर्ष प्राकृत के साथ सादृश्य का कारण हो सकता है। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि अर्धमागधी का उत्पत्तिस्थल प्राचीन मगध और उसका सीमावर्ती प्रदेश रहा है।