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अनेकान्त 67/1, जनवरी-मार्च 2014
प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव एवं अर्धमागधी भाषा : एक अध्ययन
• पद्म मुनि जैन परम्परा में सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, आप्तपुरुष, जीवन-मुक्त महापुरुष आदि के रूप में २४ तीर्थकरों की मान्यता है, जिनमें प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव और अंतिम तीर्थकर महावीर थे। वहाँ सभी तीर्थकरों के उपदेशों की भाषा अर्धमागधी बताई गई है। इस दृष्टि से वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम अर्धमागधी भाषा प्रयोक्ता भ. ऋषभदेव सिद्ध होते हैं। यह निर्विवाद सत्य है कि भाषा का प्रारम्भ किसने किया था, यह नहीं बताया जा सकता। जैन परम्परा में भगवान ऋषभदेव को लिपि का आविष्कर्ता माना गया है, भाषा का नहीं। ऋषभदेव की व्यापकता :
वर्तमान अवसर्पिणी काल के 'सुषमा-दुषमा' नामक तृतीय आरक के उत्तरार्ध में विनिता नगरी (अयोध्या) के 'सर्वतोभद्र' महल में 'मरुदेवी' और 'नाभिराय' के पुत्र के रूप में 'चैत्र कृष्ण अष्टमी' के दिन ऋषभदेव का जन्म हुआ जो प्रथम तीर्थकर कहलाए। इनका अपर नाम 'आदिनाथ' भी प्रसिद्ध है। वैदिक साहित्य में ऐसे अनेक साक्ष्य उपलब्ध होते हैं जिनमें ऋषभदेव का वर्णन परम उपास्य, परम आराध्य अष्टम्-अवतारा के रूप में किया गया है। ये सभ्यता और संस्कृति के आदिकर्ता के रूप में प्रसिद्ध हैं। इन्होंने असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन षट्-कर्मों का सूत्रपात किया था।
विभिन्न धर्म परम्पराओं में इनको विभिन्न नामों - वृषभदेव, पुरुदेव, आदिब्रह्मा, स्वयंभू, प्रजापति, कुलकर, मनु, आदमबाबा, प्रथम राजा, प्रथम सन्यासी, प्रथम तीर्थकर, प्रथम कर्मयोगी इत्यादि से जाना जाता है। कल्पसूत्र में उनके पाँच नामों का उल्लेख मिलता है-(१) ऋषभ, (२) प्रथम राजा, (३)