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अनेकान्त 671, जनवरी-मार्च 2014 शती ई०) में उल्लेख है कि पार्श्वनाथ के समय में सुपार्श्व के स्तूप का विस्तार और पुनरुद्धार हुआ था। बप्पभट्टिसूरि ने विक्रम संवत् ८२६ (७६९ ई०) में उसका जीर्णोद्धार करवाया।
इस परवर्ती साहित्यिक परम्परा की एक कुषाणकालीन तीर्थकर मूर्ति से पुष्टि होती, जिसकी पीठिका पर यह लेख-उत्कीर्ण है। १६७ ई० कि यह मूर्ति देवनिर्मित स्तूप में स्थापित की गई थी।६
किन्तु महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि प्राचीन समय में जिन-प्रतिमा किस प्रकार की निर्मित होती थी? इस विषय पर दिगम्बर और श्वेताम्बर जैन परम्परा में अन्तर है। दिगम्बर परम्परानुसार जिन-प्रतिमा शुभ लक्षण, युक्तनासाग्र दृष्टिमय और श्रीवत्स चिह्न से अंकित नग्न, श्रृंगार-वस्त्र रहित होना चाहिए। निम्न श्लोक में स्पष्ट उल्लेख किया है
“कक्षादिरोमहीनांगस्मश्रु, लेशविवर्जित, स्थित प्रलम्बितं हस्तं श्रीवत्साढयं दिगम्बर। पल्यंकासनकं कुर्याच्छिल्पि शास्त्रानुसारतः
निरायुधं च निस्त्रीक भ्रू क्षेपादि विवाजितं।। इसके अतिरिक्त श्वेताम्बर परम्परानुसार जिन प्रतिमाओं पर न वस्त्रलांछन होता था न स्पष्ट नग्नत्व ही। उनके इस कथन से कुछ भी अर्थ स्पष्ट नहीं होता है। निम्न श्लोक में दृष्टव्य है -
“पुत्विं जिणपडिमाडं नगिणत, नेव अपल्लवओ।
तेणं नागाटेणं भेओ उभएसि संभूओ।।८ इस प्रकार स्पष्ट है कि दिगम्बर एवं श्वेताम्बर जैन संप्रदाय के भिन्न-भिन्न मत हैं। वैदिक साहित्य में जिन-प्रतिमा का वैसा ही स्वरूप वर्णित है जैसा कि दिगम्बर शास्त्रों में वर्णित है।
आजानुलम्बवाहुः श्रीवत्सांकः प्रशान्तमूर्तिश्च।
दिग्वासास्तरूणों रूपवांश्च कार्योऽहता देवः।।१९
अर्थात् तीर्थकर की प्रशान्तमूर्ति श्रीवत्स लक्षण से अंकित तरूणरूप लम्बी बाहों वली निर्वस्त्र होती है। “मानसार” शास्त्र में उल्लिखित है कि जिन प्रतिमाएँ मनुष्याकृति की दो भुजा दो आँखें एक मस्तक सहित होती हैं। वह निराभरण व वस्त्ररहित नग्न होती हैं।