________________
अनेकान्त 67/1, जनवरी-मार्च 2014 अनुष्ठान किया है।'
जैन परम्परा में जिन-मूर्तियों का अनुष्ठान भक्तों ने अपनी शक्ति-भावना को प्रदर्शित करने के लिए तथा तीर्थकरों के प्रति कृतज्ञताज्ञापन के लिए प्रारंभ किया। विभिन्न ग्रन्थों में जैन धर्म से संबन्धित प्रतिमाओं को स्थापित करने के विषय में महत्वपूर्ण नियमों का वर्णन किया गया है।
भवक्याऽर्हतप्रतिमा पूज्या कृत्रिमाऽकृत्रिमा सदा।
यतस्तदगुण संकल्पात्प्रत्यक्षं पूजितो जिनः।। तीर्थकरों के प्रत्यक्ष दर्शन न होने पर श्रावकों ने उनके प्रतिबिम्ब का निर्माण किया और वह प्रतिबिम्ब उनके लिए वीतराग भाव की दिशा देने में भी सहायक सिद्ध हुए। निम्न श्लोक में उल्लिखित है - "तच्च मंगल नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल भाव भेदानन्दजनकषोढा,
स्थापना मंगल कृत्रिमा कृत्रिमाजिनादीना प्रतिबिम्ब"
भारतीय मूर्तिशिल्प में अत्यन्त साधारण से लेकर अत्यन्त कलात्मक, अलंकार विहीन से लेकर अत्यन्त अलंकृत तथा गंभीर से लेकर रौद्ररूप वाली ऐसी प्रतिमाएँ प्राप्त होती हैं जो अपने समय की सामाजिक-धार्मिक भावना तथा समृद्ध समाज का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करती है। भारतीय शिल्प में तीर्थकर प्रतिमाएँ कुषाण काल से लेकर मध्ययुग तक निर्बाध रूप से प्राप्त होती है। ऐसी अनेक प्रतिमाएँ मथुरा, लखनऊ, इलाहाबाद, भारत कला भवन, सारनाथ कुशीनगर, नई दिल्ली, भरतपुर, कोटा, जयपुर, उदयपुर, बीकानेर, बड़ौदा, नागपुर, पटना, मुम्बई, भुवनेश्वर, कोलकाता, खजुराहो, श्रीनगर आदि के संग्रहालयों तथा देवगढ़, कुमायूँ, राजगीर, खण्डगिरि, उदयगिरि, ग्वालियर, दीनाजपुर, विदिशा, बादामी, एलोरा आदि स्थानों पर दर्शनीय है।
ये प्रतिमाएँ तीन प्रकार की हैं - कायोत्सर्ग, आसनस्थ तथा सर्वतोभद्रिका। पुराणों में वर्णित है कि ऋषभदेव के पुत्र सार्वभौम सम्राट चक्रवर्ती भरत ने जिन-मूर्तियों की स्थापना की थी। जिस समय ऋषभदेव सर्वज्ञ तीर्थकर होकर सम्पूर्ण धरातल को पवित्र करने लगे तो उस समय भरत चक्रवर्ती ने तोरणों और घंटाओं पर जिन-प्रतिमाएँ बनवाकर तीर्थकर ऋषभदेव का स्मारक स्थापित किया।