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अनेकान्त 67/1, जनवरी-मार्च 2014
नाम कर्म : जिस प्रकार मोहनीय कर्म के द्वारा विशेष रूप से प्राणियों के मानसिक गुणों एवं विकारों का निर्माण होता है। उसी प्रकार शारीरिक गुणों के निर्माण में नाम कर्म विशेष समर्थ कहा गया है। नाम कर्म के मुख्य भेद बयालीस (४२) तथा उनके उपभेदों की संख्या तिरानवे (९३) है - ये उत्तर प्रकृतियाँ मानी गयी हैं।
गोत्र कर्म : लोक व्यवहार सम्बन्धी आचरण को गोत्र माना गया है। जैन कर्म सिद्धान्त में मनुष्य के कमों को फलदायक बनाने के लिए किसी एक पृथक् शक्ति की आवश्यकता नहीं समझी गयी और उसने अपने सिद्धान्त द्वारा मनुष्य के व्यक्तित्व, उसके गुण, आचरण एवं सुख-दुःखात्मक अनुभवों को उत्पन्न करने वाली कर्मशक्तियों का एक सुव्यवस्थित, वैज्ञानिक स्वरूप उपस्थित करने का प्रयत्न किया। इस प्रकार जैन मत में प्रत्येक व्यक्ति को आचरण के सम्बन्ध में पूर्णतः उत्तरदायी बनाया गया है।
जैन मत में अन्य दर्शनों की भाँति चार पुरुषार्थ - धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की मान्यता है जिसमें से अर्थ और धर्म क्रमशः काम और मोक्ष के साधन स्वरूप है। मोक्ष जीव का चरम पुरुषार्थ है। वह सच्चा सुख है। क्योंकि वह कामादि सांसारिक सुख की तरह अल्पकालीन न होकर चिरस्थायी है। इस बात को ध्यान में रखते हुये कि प्रत्येक प्राणी का अभिलाषा रूपी गर्त इतना बड़ा है कि उसमें विश्व भर की सम्पदा एक अणु के समान है तब फिर सबकी आशाओं की पूर्ति कैसे, कितना देकर की जा सकती है, जैन सिद्धान्त में सांसारिक विषयों की वासना को सर्वथा व्यर्थ माना गया है। उसकी ओर प्रवृत्ति के द्वारा किसी को स्थायी सुख शांति नहीं मिल सकती है। इसीलिए सच्चे स्थायी सुख के लिये मनुष्य को अर्थ संचय रूप प्रवृत्ति परायणता से मुड़कर धर्म साधन रूप विरक्ति परायणता का अभ्यास करना चाहिए, जिसके द्वारा सांसारिक तृष्णा से मुक्ति रूप मोक्ष सुख की प्राप्ति हो। मनु ने भी सुख और दुःख की परिभाषा इसी प्रकार की है। जैन धर्म में मोक्ष प्राप्ति का उपाय सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चरित्र को बतलाया है। इन तीनों को रत्न त्रय माना गया है।
व्यक्ति दो प्रकार के होते हैं - (१) सम्यक् दृष्टियुक्त (२) मिथ्या