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अनेकान्त 67/1, जनवरी-मार्च 2014
जैनदर्शन में मनोवैज्ञानिक तत्त्वों की अवधारणा
• डॉ. मारूफ उर रहमान
मनोविज्ञान के क्षेत्र में भारतीय चिन्तन का विशिष्ट महत्त्व है। भारतीय दार्शनिक चिन्तन दो धाराओं में विभक्त है आस्तिक, नास्तिक। मनोवैज्ञानिक की दृष्टि से आस्तिक दर्शनों में योग सांख्य तथा न्याय अत्यन्त महत्वपूर्ण चिन्तन प्रस्तुत करते हैं। इनमें भी योग ऐसा व्यावहारिक दर्शन है जिसके महत्त्व तथा प्रायोगिक रूप को सभी आस्तिक दर्शनों ने स्वीकार किया है। तिब्बत-नेपाल-चीन में बौद्ध मत प्रचलित था। इन शान्त पर्वतीय स्थलों में अनेक योगी भी तपस्या रत रहे। सभी जैन तीर्थकर भी उच्च कोटि के यौगिक साधक हुए और उसी के माध्यम से दिव्य ज्ञान प्राप्त कर सके। जैन दार्शनिक चिन्तन में मनः शास्त्रीय सामग्री भी यत्र-तत्र विकीर्ण मिलती है।
जैन दर्शन के आधार पर सष्टि के मल तत्त्वों को जीव और अजीव दो तत्त्वों में विभाजित किया गया है। जीव, जिसे अन्य दर्शनों में भी वर्णित किया गया है, इसका मुख्य लक्षण चेतना है, यह नित्य है, ज्ञाता है. स्वयं ज्ञान का विषय नहीं बनता है, कर्म करने हेतु स्वतंत्रकर्ता है, अतः शुभ अथवा अशुभ कर्म करके अपने भाग्य का स्वयं निर्माण करता है तथा सुखदुःखादि रूप फल भोगने के कारण भोक्ता भी है। उसके कर्ता और भोक्ता स्वरूप को छोड़कर अन्य स्वरूपगत विशेषताएँ सांख्य के पुरुष से साम्य रखती हैं। इसी प्रकार जैन मत में मान्य अजीव (जड़) तत्त्व सांख्य के प्रकृति तत्त्व के समान ही है। ये दोनों जीव और अजीव परस्पर सम्पर्क में आते हैं। जिससे जीव को नाना प्रकार की दशाओं का अनुभव कराने वाले बन्धनों तथा शक्तियों का निर्माण होता है। चेतना को जीव का मुख्य लक्षण' बताकर जैनों ने अपने मत का सांख्य से साम्य तथा न्याय से वैषम्य स्पष्ट कर दिया है क्योंकि न्याय दर्शन में चेतना को आत्मा का आकस्मिक गुण