________________
44
अनेकान्त 67/1 जनवरी-मार्च 2014
का एक शरीर और उसमें पाँच द्रव्य (कर्म) इन्द्रियों तथा पाँच उनके प्रतिरूप भावेन्द्रियों या ज्ञानेन्द्रियों की सत्ता को भी स्वीकार किया गया है।
इन्द्रियाँ जीव की केवल बाह्यरूप शक्तियाँ अथवा साधक हैं ये वे घटक हैं जो समस्त पदार्थों के सुखानुभावों को सम्भव बनाते हैं। इन्द्रियों में सुखानुभव की योग्यता है और सुखानुभव के विषय बाह्यरूप में भौतिक पदार्थ है। स्पर्श के आठ प्रकारों में मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के विभाग देखे जा सकते हैं।' उष्ण एवं शीत, खुरदुरा और चिकना, नरम और कठोर, हलका और भारी। इसी प्रकार स्वाद के पाँच भेद हैं : चरपरा, या तीखा, खट्टा, कड़वा, मीठा और कसैला, गन्ध के दो भेद हैं- सुगन्ध और दुर्गन्ध । रंग के पांच भेद हैं- काला, पीला, नीला, सफेद और गुलाबी । इसी प्रकार शब्द के सात भेद - षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम, धैवत और निषाद आदि माने गये हैं। द्रव्येन्द्रिय से तात्पर्य पांच कर्मेन्द्रियों से है। पांच द्रव्य और भावेन्द्रियों के अतिरिक्त एकादश इन्द्रिय मन की सत्ता अन्य दर्शनों के भाँति जैन दर्शन में मानी गई है। वैसे मनः शास्त्रियों ने इसको एक आन्तरिक शक्ति के रूप में स्वीकार किया है। जैन इसे 'नो इन्द्रिय' कहते हैं। जीव की क्रियाओं में काय, वाक् और मन ये विशेष साधन होते हैं- इनकी क्रियाओं को योग कहा जाता है । इन कालयोग, वाग्योग और मनोयोग के द्वारा आत्मा के प्रदेशों में एक परिस्पन्द होता है, जिसके कारण आत्मा में एक ऐसी अवस्था उत्पन्न होती है जिसमें उसके आसपास भरे हुये सूक्ष्माति सूक्ष्म पुद्गल परमाणु आत्मा के संलग्न हो जाते हैं। आत्मा के इन परमाणुओं से सम्पर्क का नाम आस्रव है । वाक् काय और मन की क्रिया द्वारा आये हुए इन परमाणुओं को ही कर्म कहते हैं। इस प्रकार इन पुद्गल परमाणुओं की कर्मसंज्ञा लाक्षणिक है।
जैन चिन्तन भी प्रत्यक्ष ज्ञान को इन्द्रिय के साथ पदार्थ के सन्निकर्ष से जन्य मानता है। यह यान्त्रिक सन्निकर्ष मनोवैज्ञानिक प्रत्यक्ष की सम्पूर्ण परिभाषा नहीं है। ये तो केवल उस आवरण को हटाने में सहायक हो सकता है जो जीवात्मा के ज्ञान को ढके रहता है। प्रमाता जीवात्मा, ज्ञाता, भोक्ता और कर्ता है, अर्थात वही जानता, भोग करता और कर्म करता है। चेतना के तीन प्रकार बताये गये हैं- ज्ञान, अनुभव और कर्मों के फलों का उपभोग और