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अनेकान्त 67/1, जनवरी-मार्च 2014 अब्भंतरा कसायेसु बाहिरा होदि हु सरीरे।।।
- भगवती आराधना, २०८ इससे अगली गाथा में इस बाहिरी सल्लेखना को और स्पष्ट करते हुए आचार्य कहते हैं कि बल को बढ़ाने वाले सब रसों का त्याग करते हुए रूखे आहार से कोई एक नियम विशेष लेकर अपने शरीर को क्रमिक रूप से कृश करता है बाह्य सल्लेखना को धारण करने वाला व्यक्ति-विशेष, क्योंकि कहा गया है कि
सव्वे रसे पणीदे णिज्जूहित्ता दु पत्तलुक्खेण। अण्णदरेणुवधाणेण सल्लिहइ य अप्पयं कमसो।।
- भगवती आराधना, २०९ इस प्रकार ऐसा लगता है कि जो अनशन व अवमौदर्य आदि बाह्य तप हैं, वे काय कृश करने रूप बाह्य सल्लेखना के कारक हैं तथा प्रायश्चित आदि रूप जो आभ्यंतर तप हैं, वे कषाय कृश करने रूप भीतरी सल्लेखना के एवं जिस प्रकार आभ्यंतर तप के बिना बाह्य तप निष्प्रयोज्य या निरर्थक होते हैं, ठीक उसी स्थिति आभ्यंतर सल्लेखना के बिना बाह्य सल्लेखना की होती है, इसलिए लगता तो यह है कि जब बाह्य सल्लेखना आभ्यंतर सल्लेखना की साधन बनती है, तभी काम की होती है और ठीक इसके विपरीत जब तक बाह्य सल्लेखना बाह्य सल्लेखना की क्रियाओं तक सीमित रहती है, तब तक बहुत काम की नहीं होती। बाह्य सल्लेखना के साथ-साथ
आभ्यंतर सल्लेखना भी होना चाहिए, तभी क्रमशः चलकर पूर्ण परिणाम-विशुद्धि होगी और इस प्रकार तभी सम्यक् चारित्र रूप अनंत चतुष्टय-संपन्न शुद्ध आत्मिक स्वभाव मं आत्मा रमण करने लगेगा। इसीलिए आचार्य शिवार्य कहते हैं कि इस प्रकर नाना प्रकार की शरीर सल्लेखना की विधि को करते हुए भी परिणामों की विशुद्धि को छोड़कर जो उत्कृष्ट भी तप करते हैं, उनकी चित्तवृत्ति तो पूजा-सत्कार आदि में ही लगी रहती है, उनके अशुभ कर्म के आस्रव से रहित शुद्धि नहीं होती। यथा -
एवं सरीरसल्लेहणाविहिं बहुविहा व फासेंतो। अज्झवसाणविसुद्धिं खणमवि खवओ ण मुंचेज्ज। अज्झवसाणविसुद्धीए वज्जिदा जे तवं विगुंपि।