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अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010
तब होता है जब मूलगुणों को खंडित करते हुए भी कतिपय साधु मन में खेद का अनुभव नहीं करते हैं बल्कि उस दोष को उचित सिद्ध करने का दुष्प्रयास करते रहते हैं। बहुत से व्यक्ति मुनियों के शैथिल्य की पुष्टि में यह कहते हैं कि चतुर्थ काल के चरणानुयोग के नियम पंचम काल के मुनियों पर लागू नहीं होते हैं। वस्तुतः मुनियों के मूल गुण शाश्वत हैं। काल के अंतर से मूल गुणों में कोई अंतर नहीं आता। पंचम काल के अंत तक मूल गुणों का पालन करने वाले मुनिराज रहेंगे। अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर की दिव्यध्वनि में जो चरणानुयोग की व्यवस्थाएं निरूपित हुई उन्हें ही पश्चाद्वर्ती आचार्यों ने आगम में ग्रहण किया। षट्खण्डागम, अष्टपाहुड़, प्रवचनसार, तत्वार्थ सूत्र, मूलाचार, भगवती आराधना आदि ग्रंथों की रचना पंचम काल में ही हुई और उन्होंने मुनियों के आचार संहिता का निरूपण किया, वह तो पंचम काल के मुनियों के लिए ही निरूपण किया है। पंचम काल में प्रारंभ से अब तक बराबर आगमानुकूल मूल गुणों का पालन करने वाले महामुनिराज रहते आए है और आज भी हैं। अभी पंचम काल के लगभग 18000 वर्ष बाकी हैं और तब तक भाव लिंगी मुनिराजों का अस्तित्व रहेगा। हम आशा करते हैं मुनि महाराज और श्रावक दोनों मिलकर आगमानुकूल निर्दोष मुनि चर्या का संरक्षण कर दिगम्बर जैन मुनि धर्म पर आए और आगे आने वाले संकट को दूर करने में पूर्ण दृढ़ता एवं संकल्प के साथ प्रयत्नशील बनें रहेंगे। इस विषम काल में वे वीतरागी महामुनिराज अपने निर्दोष संयम और आत्मानुभूति के द्वारा बिना कहे ही अपनी चर्या से अहिंसा अपरिग्रह एवं अनेकांत के सार्वकालिक, सर्वोदयी सिद्धांतों की जन- जन को शिक्षा देते रहेंगे।
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