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अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010
झालरापाटन का अछूता जैन-स्थापत्य
- ललित शर्मा
राजस्थान प्रदेश के दक्षिण पूर्व में स्थित झालावाड़ जिले में अनेकों ऐसी पुरातात्त्विक सम्पदा है, जिनका अभी तक यथोचित अध्ययन ही नहीं हो पाया है। यह पूरा ही क्षेत्र महिमामयी मालवा का है, जिसका सांस्कृतिक प्रभाव यहाँ की धरोहरों व जनजीवन पर आज भी परिलक्षित है। मुख्यालय के निकट 7 किलोमीटर दूर झालरापाटन में जैन धर्म का एक बड़ा सुन्दर और प्राचीन मंदिर है, जो पूर्व में मालवा से ही सम्पृक्त रहा है। मूलतः यह मंदिर भारतीय जैन प्राचीन स्थापत्य का सुन्दर उदाहरण है। मंदिर का सुन्दर शिल्प, स्थापत्य व भव्यता अध्ययन की दृष्टि से अछूती है।
झालरापाटन का यह मंदिर तीर्थकर स्वामी शांतिनाथ को समर्पित दिगम्बर मत का है। 92फीट ऊँचाई का यह मंदिर अपने प्राचीन कला वैभव के कारण पुरातत्त्वविदों के साथ-साथ पर्यटकों के आकर्षण का भी बड़ा केन्द्र है। इसे 11वीं सदी का माना जाता है। इसका निर्माण शाह पापा हूमड नामक श्रेष्ठि ने 1046 ई. में करवाया था। इसकी प्रतिष्ठा भवदेवसूरी द्वारा की गई थी। इस मंदिर के निर्माण की लागत उस युग में रुपये 400000 बतायी जाती है।' श्रेष्ठी शाह पापा हूमड की मृत्यु का यहाँ नसियां की पहाड़ी पर लगे 1109 ई. के एक अभिलेख से पता चलता है। इस मंदिर को राय कृष्णदेव ने कच्छापघात शैली का बताया है। मूलत: यह एक विशाल, प्राचीन और पूर्वाभिमुखी मंदिर है। इसके मूल गर्भ में काले पाषाण की साढ़े 12फुट लम्बी तीर्थकर स्वामी शांतिनाथ जी की दिगम्बर खड्गासन मुद्रा की मूर्ति प्रतिष्ठित है। जैनधर्म की बीस पंथी आम्नाय विधि से यह सुपूजित है। मूर्ति अतिसौम्य तथा तक्षण कला के तपभावों से सम्पृक्त है, जिसके दर्शन से मन में अपूर्व वीतराग के भाव जाग्रत होते हैं।
झालावाड़ राज्य के पुरातववेत्ता रहे पं. गोपाललाल व्यास ने इस मूर्ति पर अंकित लेख में संवत् 1145 (सन् 1088 ई.) पढ़ा था। चूँकि मंदिर का निर्माण 1046 ई. में हुआ जो पूर्व का समय है, अतः संभावना हो सकती है कि यह अभिलेख इस मंदिर में मूर्ति की प्रतिष्ठाकाल का रहा होगा, क्योंकि मंदिर निर्माण के पश्चात् ही मूर्ति की प्रतिष्ठा होती है अर्थात् निर्माण व प्रतिष्ठा में 42 वर्ष का अन्तर प्रमाणित होता है। कर्नल जेम्स टाड के अपनी 1821 ई. की इस नगर में की गई भ्रमण यात्रा के दौरान इस मंदिर के एक पाषाण फलक पर '-"ज्येष्ठ तृतीया संवत् 1003 (सन् 1046 ई.) पढ़ा था। इसमें उन्होंने एक यात्री का नामोल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त मंदिर के सभा मण्डप में उत्तर की ओर एक पाषाण अभिलेख संवत् 1854 (सन् 1797 ई.) का स्थापित है। इस लेख का महत्त्व यह है कि-संवत् 1854 में भट्टारक नरभूषण महाराज ग्वालियर से यहाँ चातुर्मास के हेतु