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अनेकान्त 63/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2010
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आस्तिक्य आदि गुणों के साथ निःशंकित आदि गुणों से युक्त होकर अंतरंग में संयम धारण करने के परिणामों में उद्यमी होता है। धर्म ध्यान की प्राप्ति हेतु आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय धर्मध्यानों का अभ्यास करता है। इस प्रकार के परिणामों से युक्त जीव अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान वाला होता है।
५ विरताविरत गुणस्थान और ध्यान
जो जीव त्रस हिंसा का त्याग कर देता है तथा स्थावर जीवों की हिंसा से अविरत है। वह जीव एक ही समय में विरत और अविरत या विरताविरत गुणस्थान वाला है। 9
इस गुणस्थान में विरताविरत रूप परिणाम एक साथ किस प्रकार होते हैं इस विषय में गोम्मटसार जीवकांड में कहा है
जिनेन्द्र देव के वचनों पर अद्वितीय श्रद्धान रखने वाला जीव एक ही समय में त्रस हिंसा की अपेक्षा विरत और स्थावर हिंसा की अपेक्षा अविरत होता है इसलिए उसको एक ही समय में विरताविरत कहते हैं।" अर्थात् विरत और अविरत दोनों ही धर्म भिन्न-भिन्न कारणों की अपेक्षा से है। अतएव सहावस्थान दोष नहीं।
विरताविरत गुणस्थान में ध्यान:
विरताविरत गुणस्थान में आर्तध्यान रौद्रध्यान और भद्रध्यान ये तीन प्रकार के ध्यान आचार्य देवसेन ने माने हैं एवं बहुत आरम्भ एवं परिग्रहवान होने से धर्मध्यान का निषेध भी किया है। 2
आर्तध्यान
इष्ट पदार्थ के वियोग होने से उसके संयोग का चिन्तवन करना प्रथम आर्तध्यान है, अनिष्ट पदार्थ के संयोग होने पर उसके वियोग का चिन्तन अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान है, रोग होने पर उसे दूर करने का चिंतवन तीसरा आर्त ध्यान है और निदान चौथा आर्त ध्यान है आर्त ध्यान से पापों का संचय एवं तियंच गति की प्राप्ति होती है।"
रौद्र ध्यान :
कषायों की तीव्रता से रौद्रध्यान होता है यह हिंसानन्द, मृषानन्द (झूठ में ध्यान आनंद मानना) स्तेयानन्द ( चोरी में आनंद मानना) एवं (परिग्रह संचय में आनन्द मानना) परिग्रहानन्द रूप रौद्र ध्यान इन चार प्रकार से होता है। रौद्र ध्यान का फल नरक गति है।
जो गृहस्थ व्यापारादि इन्द्रियों, विषयों में संकल्प विकल्प करते रहते हैं उनके आर्तध्यान एवं जिनके तीव्र मोहनीय कर्म का उदय होता है उनके रौद्रध्यान होता है। 23 भद्र ध्यान
इन आर्त रौद्र ध्यानों के फल को सम्यक ज्ञानी उपशम परिणामों से समाप्त कर देता है जिसे आचार्य देवसेन ने भद्र ध्यान कहा है
"भद्दस्स लक्खणं पुण धम्मं चितेड़ भोय परिमुक्को चिंतिय धम्मं सेवइ पुणरवि भोए जहिच्छाए ॥ २४