________________
अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010
ग्रन्थ-समीक्षा
-डॉ. आनन्द कुमार जैन
ग्रंथ का नाम- अहिंसा-विश्वकोष, प्रथम संस्करण-2010, संपादक-श्री नन्दकिशोर आचार्य, मूल्य-1500, प्रकाशक-प्राकृत भारती अकादमी, मुद्रक-सांखला प्रिंटर्स, आई.एस.बी.एन. नं. 978-81-89698-93-5
प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर ने एक बार पुनः अपनी चिरपरिचित शैली का प्रकाशन किया है, जिसका नाम अहिंसा-विश्वकोष है। श्री नन्दकिशोर आचार्य कृत यह महनीय कार्य श्लाघ्य है, जिसका लाभ अहिंसा-प्रेमियों को निश्चित ही होगा। लगभग आठ सौ पृष्ठीय यह कृति कई लेखकों के ससन्दर्भ चिंतनात्मक शोध-कार्य का नवनीत है, जिसकी उपयोगिता सार्वकालिक है। __इसमें अहिंसा पर विभिन्न दृष्टिकोण से विचार किया गया है कि पौराणिक, ऐतिहासिक, वैज्ञानिक, सांस्कृतिक, आधुनिक, मनोवैज्ञानिक, पाश्चात्य, धार्मिक, अनुसंधानात्मक इत्यादि कई रीतियों का सम्मिश्रण है। पूर्णतया गद्यात्मक शैली की यह रचना अहिंसा के संपूर्ण पक्षों को स्वयं में समेटे है। ऐतिहासिक के साथ-साथ श्रुतपरंपरा से प्राप्त प्रागैतिहासिक काल से लेकर इक्कीसवीं शताब्दी तक के प्रमुख ग्रंथों एवं विद्वानों के दृष्टिकोण को संपादक ने इसमें सुनियोजित विधि से प्रस्तुत किया है। इतना ही नहीं अपितु इसमें प्रसिद्ध चिंतकों जैसे श्री नन्दकिशोर आचार्य, आचार्य महाप्रज्ञ, प्रो. पी.सी. जैन, प्रो. अख्तरुल वात्से, डॉ. तारा डागा, डॉ. धर्मचन्द जैन, सा. वामहोपाध्याय विनयसागर, डी. आर. मेहता, प्रो. सामदोग रिनपोचे, प्रो. प्रेम सुमन जैन, जस्टिस पानाचन्द जैन के लेखों का समुचित संग्रह दृष्टव्य है। कुछ उभरती नई प्रतिभाओं को भी इसमें मौका मिला है जैसे वन्दना कुण्डलिया, सुप्रिया पाठक इत्यादि।
संपादक ने अनेक विषयों पर स्वयं की वर्तनी का प्रभावक प्रयोग किया है साथ ही हिन्दी प्रेमियों के लिये कई अंग्रेजी लेखों का सरस हिन्दी रूपांतरण भी दिया है जैसे लास्से नार्डलुंड, ईथान मिलर, विलियम बास्करन, महात्मा गाँधी, रुडी यस्मा आदि। _इस संकलन की कुछ मौलिक विशेषतायें हैं जिसको प्रकाशित करना पाठक वर्ग के लिए आवश्यक है- यथा अहिंसा को धर्म विशेष से मुक्त करके विश्व-धर्म के रूप में स्थापित किया है। अहिंसा न केवल वेदों का, न केवल जैन या अन्य किसी की अधिकृत संपत्ति है अपितु सभी ने किसी न किसी रूप में चाहे आंशिक हो या पूर्ण, इसका महत्त्व स्वीकारा है। दूसरा बिन्दु यह है कि प्रायः इस प्रकार के ग्रंथों में विषय पुनरुक्ति का दोष