Book Title: Anekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 381
________________ अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 श्लो. 19 52. वही- 663 53. वही- 665 54. गो. जी.- 63-64/तत्त्वसार टी 55. भावसंग्रह- 669-670 56. वही- 678 57. गो जी गा. 65 58. भावसंग्रह 681-682 59. वही- 683 - २१ महावीर भवन सर्वऋतु विलास उदयपुर (राज.) मो. 09414234793 सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टि सम्माइट्ठी जीवो उवइट्ठ पवयणं तु सद्दहदि। सद्दहदि असब्भावं अजाणमाणो गुरुणियोगा॥२७॥ गो.जी.का. सम्यग्दृष्टि जीव उपदिष्ट प्रवचन का नियम से श्रद्धान करता है। वह गुरु के नियोग से कहे गये असद्भूत पदार्थ का श्रद्धान करता है तो भी उसका सम्यग्दर्शन नहीं गिरता क्योंकि वह तो उसको भी परमागम का उपदेश समझकर श्रद्धान करता है। परन्तु सुत्तादो तं सम्मं दरिसिज्जंतं जदा ण सद्दहदि। सो चेव हवइ मिच्छाइट्ठी जीवो तदो पहुदी॥२८॥ गो.जी.का. सूत्र (आगम) से समीचीन रूप से दिखलाये गये उस अर्थ का जब वह जीव श्रद्धान नहीं करता है, उस समय से यह जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है। अर्थात् उस पदार्थ को आगम में प्रमाण सहित गलत दिखाये जाने पर भी यदि वह उससे श्रद्धान नहीं छोड़ता है तो वह उसी समय से मिथ्यादृष्टि हो जाता है।

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