Book Title: Anekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 372
________________ अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 नीचे गिरता है इसलिए इस गुणस्थान को सासादन कहा है। इस गुणस्थानवी जीव प्रथम गुणस्थान से द्वितीय गुणस्थान में नहीं आते बल्कि चतुर्थ आदि गुणस्थान से कषायों के उदय के कारण जब कोई जीव नीचे गिरने लगता है तब इस गुणस्थान में आता है। इसलिए यह गुणस्थान उत्थान का नहीं बल्कि पतन का है। मिथ्यात्व भूमि के स्पर्श से पूर्व इसमें सम्यक्त्व का अल्पाभास सा होता है। जैसे सूर्य अस्त के उपरांत रात्रि का पूर्ण अन्धकार होने के पूर्व की अवस्था। इस गुणस्थान में जीव की अवस्था छह आवली मात्र है। इस गुणस्थान में दर्शनमोहनीय के उदय, क्षय एवं क्षयोपशम का अभाव होने से केवल पारिणामिक' भाव ही होते हैं। ३ मिश्रगुणस्थान और परिणाम जिस अवस्था में जीव के सम्यक् और मिथ्या अर्थात् सम्यमिथ्यात्व रूप परिणाम होते हैं वह मिश्र गुणस्थान है। जिस प्रकार खच्चर जाति का गधा गधी से उत्पन्न न होकर घोड़ी से उत्पन्न होता है। गधा-घोडी से उत्पन्न होने वाली यह तीसरी जाति है। इस प्रकार इस मिश्र गुणस्थान में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनों के मिले हुये तीसरी जाति के परिणाम होते हैं। इस गुणस्थान में रहने वाले जीव देश संयम और सकल संयम धारण नहीं कर सकते।।5 मिश्र गुणस्थानवर्ती जीव के आयु बन्ध का अभाव एवं मरण का अभाव होता है यह जीव या तो सम्यक्दर्शन धारण कर मर सकता है अथवा मिथ्यात्व गुणस्थान में जाकर मर सकता है। इस गुणस्थान में जीव के आर्तध्यान और रौद्रध्यान का ही चिन्तवन चलता है। सम्यक् मिथ्यात्व रूप परिणामों के कारण सम्यक् एवं मिथ्या सभी देवों की आराधना करता है सभी धर्मों को समान मानता है गुण-अवगुण के भेद का ज्ञान नहीं होता। ४ अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान और परिणाम जिसका श्रद्धान सम्यक् होने पर भी अभी पाँच पापों का एकदेश त्याग भी न होने से संयम रहित है वह अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान है। “णो इंदिएसु विरदो जीवे थावर-तसे वापि। जो सद्दहदि जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो॥ १७ अर्थात् जो जीव इन्द्रियों के विषयों से विरत न होने के साथ त्रस स्थावर जीवों की हिंसा से भी विरत नही हैं परन्तु जो जिनदेव कथित तत्त्वों पर श्रद्धान रखता है वह अविरत सम्यक्दृष्टि है। इस गुणस्थान में मोहनीय कर्म की क्षय, क्षयोपशम, उपशम आदि स्थिति के अनुसार क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक तीनों प्रकार के परिणाम होते हैं। यद्यपि अविरत सम्यक्दृष्टि जीव इन्द्रियों से विरत नहीं होता और न त्रस स्थावर से विरत होता है तथापि सम्यक्दर्शन के प्रगट होने से उसके प्रशम, संवेग, अनुकम्पा,

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