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अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010
१० सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान और परिणाम :-सूक्ष्म सांपराय से तात्पर्य सूक्ष्म कषाय से है जहाँ मात्र सूक्ष्म लोभ का उदय शेष है जिससे चित्त सूक्ष्म अशुद्धता से युक्त होता है वह सूक्ष्मसांपराय है।
इस गुणस्थान में औपशमिक श्रेणी वाले के औपशमिक एवं क्षपक श्रेणी वाले के क्षायिक भाव होते हैं। तीनों भेद वाला प्रथम शुक्ल ध्यान होता है।'' __ जिस प्रकार कुसुमल में रंगे हुए वस्त्रों में लाली अत्यन्त सूक्ष्म होती है इसी तरह इस गुणस्थान में लोभ कषाय अत्यन्त सूक्ष्म होती है।
११ उपशांत कषाय गुणस्थान और परिणामः- मोह की समस्त प्रकृतियों के उपशम से उपशांत कषाय गुणस्थान होता है इस गुणस्थान में क्षपक श्रेणी वाले नहीं आ सकते जो प्रारंभ से उपशम श्रेणी पर आरूढ़ है वही इस गुणस्थान के पात्र बनते हैं।
इस गुणस्थान में पृथक्त्व वितर्क शुक्ल ध्यान एवं औपशमिक भाव ही होते हैं। गुणस्थान के अंत में मोहनीय की समस्त प्रकृतियां जो उपशांत थीं वे उदय में आ जाती है जिससे ग्यारहवें उपशांत गुणस्थान से नीचे पतन हो जाता है।
१२ क्षीणमोह गुणस्थान में ध्यान :-समस्त मोहनीय कर्म के क्षय से क्षीण मोह गुणस्थान होता है जैसे शुद्ध स्फटिक मणि में रखा हुआ जल शुद्ध निर्मल हो जाता है इसी तरह जिसकी कषायें पूर्णरूप से नष्ट हो गई हैं ऐसे क्षीण कषाय गुणस्थान में स्थित मुनि के परिणाम सदाकाल निर्मल रहते हैं एवं उन मुनियों के क्षायिक भाव ही होते हैं।
क्षीण मोह गुणस्थान में एकत्व वितर्क नाम का दूसरा शुक्ल ध्यान वितर्क अर्थात् श्रुतज्ञान सहित होता है। किसी एक योग से होने वाले ध्यान में वीचार का संक्रमण नहीं होता मणिरत्न की शिखा के समान निश्चल वीचार रहित ध्यान होता है।
ध्यान में स्थित मुनि बारहवें गुणस्थान के उपान्त्य समय में अपने प्रवाहित ध्यान के द्वारा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन घातिया कर्मों का नाश कर पूर्ण निर्मल केवलज्ञान प्रगट करते हैं। यह केवलज्ञान लोक-अलोक को एक साथ प्रकाशित करने वाला होता है। इस ज्ञान में कोई उपद्रव नहीं होता और वह ज्ञान फिर कभी भी नष्ट नहीं होता अनंत काल तक बना रहता है।'
१३ सयोग केवली गुणस्थान में ध्यान की अवस्था :- जिन के केवलज्ञान रूपी सूर्य की किरणों के समूह से अज्ञान अंधकार नाशक, क्षायिक सम्यक्त्व ज्ञान, चारित्र, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य इन नौ लब्धियों की प्राप्ति होने से जिन्हें परमात्मा या जिन संज्ञा प्राप्त हो गई है वह ज्ञान की पूर्णता सयोग केवली गुणस्थान की है।
तेरहवें गुणस्थानवर्ती जिन के शुद्ध क्षायिक भाव विकल्प रहित और निश्चल होते हैं। इस गुणस्थान में सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति तीसरा शुक्ल ध्यान होता है। इस गुणस्थानवी जीव के प्रदेशों का परिस्पंदन अत्यन्त सूक्ष्म होने से जो शुभ कर्मों की वर्गणाएँ आती हैं वे उसी समय चली जाती हैं आत्म प्रदेशों में वे कर्मवर्गणाएं रुकती नही हैं। इसका कारण है कि उन केवली भगवान के रागद्वेष का सर्वथा अभाव होने से उनके कर्मो का बंध नहीं होता।