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अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010
अर्थात् भोगों का सेवन करता हुआ भी जो धर्म ध्यान धारण करता है उसे भद्र ध्यान कहा है।
आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाक विचय और संस्थान विचय रूप चार प्रकार का धर्म ध्यान है परंतु यह धर्मध्यान मुख्यता से प्रमाद रहित सातवें गुणस्थान में होता है किन्तु विरताविरत पाँचवें गुणस्थान में और प्रमत्त संयत छठे गुणस्थान में उपचार से होता है। पंचम विरताविरत गुणस्थान में निरालंब धर्मध्यान का निषेध
धर्म ध्यान के अन्य प्रकार से दो भेद आचार्य देवसेन ने किये हैं (1) सालंब (2) निरालंब। सालंब - एक आलंबन सहित पाँच परमेष्ठी के स्वरूप चिंतवन रूप सालंब धर्म सालंब धर्मध्यान होता है।
निरालंब - दूसरा जो गृहस्थी त्याग कर जिनलिंग धारण कर (मुनिदीक्षा) कर लेता है एवं मुनि होकर भी अप्रमत्त नाम के सातवें गुणस्थान में पहुँच जाता है तब उसी के निरालंब ध्यान होता है गृहस्थ अवस्था में निरालंब ध्यान कभी संभव नहीं।
इसका कारण है कि गृहस्थों के सदाकाल बाह्य आभ्यंतर परिग्रह परिमित रूप से रहते हैं साथ ही अनेक प्रकार के आरंभ होने से गृहस्थ शुद्ध अवस्था का ध्यान नहीं कर सकता।
यदि कोई गृहस्थ शुद्ध आत्मा का ध्यान करना चाहता है तो उसका ध्यान ढेंकी के समान है जिस प्रकार ढेंकी धान कूटने के बाद भी उससे कोई लाभ नहीं होता उसका परिश्रम व्यर्थ है।
इस प्रकार गृहस्थों के निरालंब ध्यान एवं शुद्ध आत्मा का ध्यान परिश्रम मात्र है। इस प्रकार पंचम गुणस्थान में निरालंब शुद्ध आत्मा का निश्चल ध्यान कभी नहीं हो सकता।
इस गुणस्थानवी जीवों को आलंबन सहित ध्यान धारण योग्य है। ६. प्रमत्तसंयत गुणस्थान और परिणाम
प्रमत्तसंयत गुणस्थान में औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक तीनों प्रकार के परिणाम होते हैं तथा पन्द्रह प्रमाद भी इसी गुणस्थान तक होते हैं इसलिए यह गुणस्थान प्रमत्त संयत कहा जाता है।"
पूर्व के गुणस्थानों में पापों का सर्वथा त्याग न होने से प्रमाद भी रहता है परंतु प्रमत्त संयत गुणस्थान में पापों का सर्वथा त्याग हो जाता है परंतु प्रमाद अब भी उपस्थित रहता है इसलिए इस अवस्था को प्रमत्त संयत (प्रमाद सहित) कहा जाता है। ___ महाव्रती साधु जो सकल मूलगुणों से युक्त होकर भी व्यक्त और अव्यक्त प्रमाद में निवास करता है वह चित्रल आचरण वाला प्रमत्त संयत है।
जिस प्रमाद में स्वयं को स्पष्ट अनुभव होता है वह व्यक्त प्रमाद है एवं जिसका स्वयं को स्पष्ट अनुभव न हो वह अव्यक्त प्रमाद है। इस प्रकार की अवस्था के कारण प्रमत्त संयत गुणस्थानवर्ती के आचरण को चित्रल आचरण कहा है।
पन्द्रह प्रकार के प्रमादों का वर्णन भावसंग्रह में किया है चार विकथा, चार कषाय,