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अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010
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पधारे थे। उस समय उन्होंने यहां के जैन समाज पर इस मंदिर की धूप दीप की व्यवस्था हेतु एक मणी अनाज व आधा पैसा धर्मादा कर देने का निश्चय किया था।
मंदिर का स्थापत्य प्राचीन मालवा के मंदिरों के स्थापत्य से साम्यता रखता है। इसमें मुख्य गर्भगृह के बाहर कोली मण्डप और गूढ मण्डप है। प्रवेश द्वार पर चीनी मिट्टी पाषाण के दो विशाल और महावत युक्त सफेद गज अपनी सूंड ऊपर उठाये अभिनंदन मुद्रा में स्थापित हैं। मंदिर की छत्रियों की तीखी नोकों और छज्जों के तीखेपन को देखकर प्रतीत होता है-जैसे देवराज इन्द्र का विमान ऐरावतों सहित ज्यों का त्यों मालवा की प्राचीन नगरी झालरापाटन की धरती पर उतार दिया हो। इस मंदिर के वितान का जीर्णोद्धार 18वीं सदी में हुआ था। इसमें मंदिर और शिखर प्राचीन स्थापत्य के उदाहरण हैं। मंदिर में गूढ मण्डप के स्तम्भों पर शास्त्रीय विधि अनुसार पुरुष युग्म व देवमूर्तियां बनी हैं। मण्डोवर मूल रूप से मेरू मण्डोवर की श्रेणी में है, जबकि दक्षिण भाग में चन्द्रावती नगरी के किसी भग्न शिव मंदिर की सुन्दर मूर्तियाँ लाकर लगाई गई प्रतीत होती है। सभावना है यह कार्य 18वीं सदी में हुआ हो। इन मूर्तियों में अन्धकासुरवध, शिव स्थानक आदि हैं। मुख्य रथिकाओं में कार्योत्सर्ग जैन मूर्तियाँ है, जबकि नीचे की रथिकाओं में शाक्त मूर्तियाँ देवियों की दिखाई देती हैं। दक्षिण भाग में एक ऐसी देवी मूर्ति है जिसकी अनेक भुजाओं में कटार, वज्र, कमल, घण्टा, पुष्प व ढाल है तथा एक हाथ खाली है। मंदिर पृष्ठ की रथिका में चक्रेश्वरी देवी की अष्टभुजा युक्त सुन्दर मूर्ति है, वहीं उत्तरी भाग में गजलक्ष्मी का सुन्दर अंकन है। रथिकाओं में अनेक सुन्दरियों को विभिन्न भाव व मुद्राओं में अंकित कर ऊकेरा गया है। इनके मध्या व्याल बने हुए हैं।
पुरातत्त्ववेत्ता कृष्णदेव ने इस मंदिर की स्थापत्य कला की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करते हुए लिखा है कि उनके अनुसार मंदिर के अन्दर का अंतराल मूल रूप में है, जिसके ठीक पृष्ठ में गंधमण्डप है। उसके पश्चात् आन्तरिक गृह है। मंदिर की पीठिका, समतल पीठिका के ऊपर है। इसमें जाड़याकुम्भ, मकर, कर्णक तथा ग्रास पट्टिका से समलंकृत है। इसके ठीक उच्च भाग में वेदिबन्ध है, जिसमें खुर व लम्बवत कुम्भ सुशोभित है। इनमें जैन देव मूर्तियों का अंकन है। यह ठीक वैसे ही है, जैसे विशाल रत्न के साथ मध्य बन्ध की रत्न पट्टिका, कलश और कपोत से सुसज्जित अंगारिका व गंगारिका है। जन्धाओं की दो कतारों में खड़ी आकृतियाँ है, जो ग्रास पट्टी द्वारा अलग होकर मध्यबन्ध तक निर्मित की हुई है। इनमें ऊपरी कतार, नीचे की कतार से कुछ छोटी है। इसकी जन्घा चौकोर बरानी से घिरी हुई है तथा वरन्डिका को ध्यान से देखने पर प्रतीत होता है कि वह दो कपोतों की तुलना योग्य है।
इस मंदिर का वह प्रथम और द्वितीय जहाँ से दीवार की मुख्य निर्मिती आरंभ होती है, वह लतिकाओं द्वारा सजाया गया है और उन कुजरक्षा मण्डित है। यह सब प्रभाव मालवा
की परमार कला से प्रभावित है। जैसा कि पूर्वोक्त में रेखांकित किया गया है कि मंदिर शिखर की मूल मंजरी पंचस्थ की है तथा मुख्यरथ गज आकृति में है। शिखर की अनुपमेय सज्जा बेजोड़ चैत्य गवाक्ष द्वारा की गई है। कर्णस्थ में ग्यारह भूमि अमलकाएं सुन्दर