________________
अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010
२. हिंसादान
निष्प्रयोजन जहरीली गैस, अस्त्र-शस्त्र आदि उपकरणों का दान, जिनसे हिंसा उत्पन्न हो सकती है, हिंसादान नामक अनर्थदण्ड कहलाता है। समन्तभद्राचार्य के अनुसार फरसा, तलवार, कुदाली, अग्नि, आयुध, सींग, सांकल आदि हिंसा के उपकरणों का दान हिंसादान नामक अनर्थदण्ड है। आचार्य पूज्यपाद ने भी इसी प्रकार विष, कांटो, शस्त्र अग्नि, रस्सी, चाबुक और डण्डा आदि हिंसा के उपकरणों के दान को हिंसादान अनर्थदण्ड कहा है। अमृताचन्द्राचार्य ने लिखा है
असिधेनुविषहुताशनलांगलकरवालकार्मुकादीनाम्।
वितरणमुपकरणानां हिंसायाः परिहरेद् यत्नात्॥२८ अर्थात् आरी, धेनु, विष, अग्नि, हल, कखाल, धनुष आदि हिंसा के उपकरणों को दान देने का प्रयत्नपूर्वक त्याग कर देना चाहिये। चारित्रसार में भी कहा गया है कि विष, शस्त्र, रस्सी, चाबुक, डण्डा आदि हिंसा के उपकरण देना हिंसादान अनर्थदण्ड है। यह विशेष ज्ञातव्य है कि प्रायः सभी श्रावकाचारों में जहाँ हिंसा के उपकरणों को देना हिंसादान अनर्थदण्ड कहा गया है, वहां कार्तिकेयानुप्रेक्षा में बिलाव आदि के दान को भी हिंसादान अनर्थदण्ड कहा गया है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में बिलाव आदि हिंसक पशुओं के पालन को भी इस अनर्थदण्ड में सम्मिलित किया गया है। ३. अपध्यान
आर्त्त, रौद्र, खोटे ध्यान की अपध्यान संज्ञा है। पीड़ा या कष्ट के समय आर्तध्यान तथा बैरिघात आदि के विचार के समय रौद्र ध्यान होता है ये ध्यान कभी नहीं करने चाहिए। किसी प्रसंगवश इनका ध्यान हो जाये तो इन्हें तभी दूर करने का प्रयत्न करना चाहिये। दूसरों के बारे में गलत विचार अर्थात् खोटा विचार अपध्यान नामक अनर्थदण्ड कहलाता है। समन्तभद्राचार्य के अनुसार राग से अथवा द्वेष से अन्य की स्त्री आदि के नाश होने, कैद होने, कट जाने आदि के चिन्तन करने को अपध्यान नाम अनर्थदण्ड माना गया है। स्वामी कार्तिकेय ने परदोषों के ग्रहण, परसंपत्ति की इच्छा, परस्त्री के समीक्षण तथा परकलह के दर्शन को अपध्यान नामक अनर्थदण्ड कहा है। सर्वार्थसिद्धि में आचार्य पूज्यपाद ने भी कहा है- 'परेषां जयपराजयवधबन्धनांगच्छेदपरस्वहरणादि कथं स्यादिति मनसा चिन्तनमपध्यानम्।
। अर्थात् दूसरों की हार-जीत, मारना, बाँधना, अंग छेदना, धन का अपहरण करना आदि कार्यों को कैसे किया जाये इस प्रकार मन से विचारना अपध्यान है। ४. दुःश्रुति
दु:श्रुति को अशुभश्रुति के नाम से लिखा गया है। श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र जी ने अपने योगशास्त्र नामक ग्रंथ में अनर्थदण्ड के चार ही भेद किये हैं। दुःश्रुति को अलग भेद नहीं माना है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में स्वामी कार्तिकेय ने कहा है कि जिन ग्रंथों में गंदे मजाक, वशीकरण, काम-सेवन, आदि का वर्णन हो उनका सुनना तथा उनके दोषों की चर्चा सुनना