Book Title: Anekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 332
________________ 44 अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 प्राकृत पाठ मात्र भावशून्य क्रिया न रह जाये किन्तु मूल पाठ प्राकृत भाषा में ही सुरक्षित रखें। सामायिक का काल ___ शास्त्रों में सामायिक का काल एक अन्तर्मुहूर्त निश्चित किया गया है, जिसका अर्थ है 48 मिनट से कुछ कम। निश्चित रूप से एक गृहस्थ आज की इस भाग-दौड़ भरी जिन्दगी में 48 मिनट अपनी आत्मा की आराधना के लिए निकाल ले तो यह बहुत बड़ी बात है। हम यह विचार कर सकते हैं कि क्या 24 घंटों में मात्र 48 मिनट स्वभाव के लिए नहीं निकाल सकते जबकि शेष 23 घंटे 12 मिनट हम परभावों में ही रहते है। ऐसी सामायिक तो दिन में कई बार भी की जाती है किन्तु यदि मात्र एक अन्तर्मुहूर्त भी समता की आराधना के लिए हम नहीं निकाल सकते तो हमें यह कहना छोड़ देना चाहिए कि हम वीतरागता के उपासक हैं और मोक्षपद के प्रत्याशी हैं। प्राचीन शास्त्रोक्त सामायिक का अभ्यास तो साधु संघों में, मंदिरों में, स्थानकों में चलता है तथा उसकी प्रेरणा श्रावकों को दी जाती है। यह परंपरा चलती रहनी चाहिए किन्तु आज के आधुनिक और उत्तर-आधुनिक युग में ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में अब वक्त आ गया है जब हम 'सामायिक' की एक ग्लोबल प्रविधि भी विकसित करें। इस नयी प्रविधि में हम अभ्यास के रूप में ही; न सही 48 मिनट बल्कि मात्र 15 मिनट की ऐसी नयी प्रक्रिया तैयार कर सकते हैं जो महज यान्त्रिक न होकर अत्यन्त स्वावलम्बी तथा स्वाभाविक हो। मैं मानता हूँ कि किसी एक निश्चित समय में पूरे विश्व में सभी जैन संप्रदायों से परे होकर यदि पन्द्रह मिनट भी सामायिक की आराधना करें तो एक नयी क्रांति की शुरुआत हो सकती है। जिस प्रकार मुसलमान एक निश्चित समय पर पूरे विश्व में नमाज अदा करते हैं। वे ट्रेन में सफर कर रहे हों अथवा प्लेटफार्म पर खड़े हों चाहे कैसी भी स्थिति में हो जब नमाज का वक्त होता है वे नमाज जरूर पढ़ते हैं। उनकी यह क्रिया उनकी अन्तर्राष्ट्रिय पहचान बनाती है उसी प्रकार सभी संप्रदायों के जैन एक निश्चित समय पर सामायिक करके आध्यात्मिक मूल्यों को तो जीवन में सुरक्षित रख ही सकते हैं तथा साथ ही साथ इस क्रिया के माध्यम से अपनी अन्तराष्ट्रिय पहचान भी बना सकते हैं। जैन समाज की एकता और सामायिक _ 'संघे शक्तिः कलौ युगे' - अर्थात् आज जिस युग में हम जी रहे हैं उस युग में संगठन, एकता ही शक्ति संपन्नता का परिचायक होती है। जैन धर्म एवं संप्रदाय आध्यात्मिक परिभाषा में एक होते हुए भी अनेक संप्रदायों, उपसंप्रदायों में विभक्त है। दिगम्बर-श्वेताम्बर, मूर्तिपूजक, स्थानकवासी, तेरापंथी, बीसपंथी, तारणपंथी, कानजी पंथी इत्यादि अनेक विचार हमारी चिंतनशीलता के परिचायक तो हैं किन्तु जब हमारी संस्कृति के अस्तित्व पर ही संकट के बादल मडराने लगते हैं तब हमें कौमी एकता की आवश्यकता पड़ती है।

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