Book Title: Anekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 352
________________ 64 अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 बात की चिंता नहीं की जाती है कि इसे कौन ग्रहण करेगा। दान में सदैव त्याग की भावना छुपी रहती है पर त्याग में सदैव दान का भाव रहना आवश्यक नहीं है। दान एवं त्याग में भेद होते हुए भी मोक्षमार्गी जीव के लिए दोनों ही आवश्यक हैं। इन दोनों क्रियाओं का फल परंपरा से मोक्ष रूप ही दिखाई देता है। इसलिए फल प्राप्ति की अपेक्षा दान एवं त्याग दोनों ही समान रूप से आत्मा के लिए हितकारी हैं क्योंकि इन दोनों से ही मोह समाप्त होता है और जीव निर्मोही बनकर अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करता है। संदर्भ 1. आचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, 2/4 2. आचार्य उमास्वामी, तत्त्वार्थसूत्र, 7/8 3. आचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, 6/12 4. आचार्य वीरसेन, धवला, 13/5,5,137 5. आचार्य समन्तभद्र, रत्नकरण्डक श्रावकाचार, 117 6. आचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, 6/24 7. आचार्य गुणभद्र, महापुराण, 38/35 8. आचार्य पद्मनंदी, पद्मनंदी पंचविंशतिका, 248 9. पं. आशाधर, सागार धर्मामृत, 2/40 10. आचार्य कुंदकुंद, रयणसार, 11 11. आचार्य पद्मनंदी, प. पं. 408, 465, 474 12. आचार्य रविषेण, पद्मपुराण, 17/6 13. आचार्य जिनसेन, हरिवंश पुराण, सर्ग 10 श्लो. 8 14. आचार्य जिनसेन, हरिवंश पुराण, 9/116, 117 15. स्वामिकुमार, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 34 16. आचार्य सकलकीर्ति, प्रश्नोत्तर श्रावकाचार 20/100 17. आचार्य सकलकीर्ति, प्रश्नोत्तर श्रावकाचार 20/101 18. आचार्य पद्मनंदी, प. पं./227 19. आचार्य पद्मनंदी, प. पं./229 20. आचार्य पूज्यपाद, इष्टोपदेश, 16 21. आचार्य सकलकीर्ति, प्रश्नोत्तर श्रावकाचार 20/41 22. आचार्य पद्मनंदी, प प./206 23. आचार्य पद्मनंदी, प. पं./236 24. कुरलकाव्य, 23/6 25. हरिवंशपुराण, सर्ग 14-15 26, आचार्य समन्तभद्र, रत्नकरण्डक श्रावकाचार/116 27. आचार्य जिनसेन, हरिवंशपुराण, 9/201, 206 28. आचार्य जिनसेन, योगशास्त्र, 2/48 29. आचार्य उमास्वामी, तत्त्वार्थसूत्र, 7/39 30. आचार्य जिनसेन, आदिपुराण, 20/86 31. श्री नेमिचंद्राचार्य, त्रिलोकसार, 924 32. कवि संतलाल, सिद्धचक्र विधान, मंगलाचरण 33. पं. आशाधर, सागारधर्मामृत, 11

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