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अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 से भ्रष्ट होते हैं।" इन्द्रिय, कषाय और विषयों के कारण राग-द्वेष परिणामों और क्रोधादि परिणामों के तीव्र होने से चारित्र को तृण सदृश मानते हैं। आचार्य बट्टकर के समय भी पार्श्वस्थ साधुओं का बाहुल्य था। मूलाचार के समयसार अधिकार में उन्होंने कहा है कि
वरं गणं पवेसादो विवाहस्स पवेसणं।
विवाहे रागउप्पत्ति गणो दोसाणमागारो॥१२॥ गण में प्रवेश करने से विवाह कर लेना उत्तम है। विवाह में रोग की उत्पत्ति होती है और गण दोषों का आकर है। टीकाकार वसुनन्दि इसी प्रसंग में लिखते हैं कि यति अन्त समय में गण में रहता है तो शिष्य वगैरह के मोहवश पार्श्वस्थ साधुओं के संपर्क में होगा इससे तो विवाह करना श्रेष्ठ है क्योंकि गण सब दोषों का आकर है। यहाँ पार्श्वस्थ साधु को सबसे अधिक निन्द्य माना गया है। वर्तमान में इस श्रेणी वाले भी देखने को मिल रहे हैं जो अत्यधिक चिंता का विषय है। कुशील
कुत्सित आचरण युक्त स्वभाव वाले श्रमण कुशील कहलाते हैं। ये साधु संघ से दूर होकर कुशील प्रतिसेवना रूप वन में उन्मार्ग से दौड़ते हुए आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञा रूप नदी में गिरकर कष्ट रूपी प्रवाह में पड़कर डूब जाते हैं। पहले वे उत्तरगुण छोड़ते हैं फिर मूलगुण और सम्यक्त्व से भी भ्रष्ट होकर संसार में परिभ्रमण करते हैं। कुशील संबन्धी दोषों की प्रवृत्ति में प्रवृत्त रहते हैं, इन्द्रिय विषय एवं कषाय के तीव्र परिणामों से युक्त होते हैं तथा व्रत, गुण शील, चारित्र की परवाह न कर अपयश फैलाते हैं। इस प्रवृत्ति के साधुओं से जैनधर्म की अप्रभावना हो रही है। वर्तमान जो शील में दोष लगा रहे हैं, उन्हें कुशीलमुनि ही कहा जायेगा। बड़ी विडम्बना है कि चारित्र भ्रष्ट होने वाले साधुओं को भी समाज बहुमान देती रहती है। इससे इस प्रवृत्ति वालों पर अंकुश नहीं लग सकता
संसक्त
जो असंयत के गुणों में अतिशय आसक्त रहते हैं वह संयक्त हैं। वे आहार आदि की लम्पटता से वैद्यक, मंत्र ज्योतिषी आदि द्वारा अपनी कुशलता दिखाने में लगे रहते हैं, राजादिकों की सेवा करने में तत्पर रहते हैं। ऐसे श्रमण चारित्रप्रिय मुनि के सहवास से चारित्रप्रिय और चारित्र अप्रिय मुनि के सहवास से चारित्र अप्रिय बनते हैं नट के समान इनका आचरण रहता है ये संसक्त मुनि इन्द्रियों के विषय में आसक्त रहते हैं। तथा तीन प्रकार के गारवों में आसक्त होते हैं। स्त्री के विषय में इनके परिणाम संक्लेश युक्त होते हैं। गृहस्थों पर इनका विशेष प्रेम होता है।
इन संसक्त मुनियों जैसा आचरण जिनका चल रहा है, उनसे मुनिधर्म की हानि तो हो ही रही है। श्रावक भी बहुत छले जा रहे हैं, श्रावकों के लिए जानकर ऐसे आचरण वालों से बचना ही श्रेयस्कर है।