Book Title: Anekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 363
________________ अनेकान्त 63/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2010 अवसन्न सम्यग्दर्शनादिक जिनके विनष्ट हो गये हैं, जिनवचनों को न जानकर चारित्रादि से भ्रष्ट तेरह क्रियाओं को करने में आलसी तथा मन से सांसारिक सुख चाहने वाले श्रमण अवसन्न कहलाते हैं। जैसे कीचड़ में फंसे हुए मार्ग से भ्रष्ट पथिक भाव अवसन्न हैं वैसे ही अशुद्ध चारित्रयुक्त संयतमार्ग से भ्रमित श्रमण अवसन्न हैं भगवती आराधनाकार का कहना है कि इन्द्रिय और कषायरूप तीव्र परिणाम होने से सुख पूर्वक समाधि में लगा जो साधु पंचमहाव्रत, पंचसमिति,- त्रिगुप्ति रूप क्रियाओं को आलसी होकर करने लगता है, वह अवसन्न या अवसंज्ञ कहलाता है। तेरह प्रकार के चारित्र से भ्रष्ट साधुओं द्वारा धर्म की प्रभावना हुई है और हो रही है। महानगरों की सुख सुविधाओं ने समितियों से नाता तुड़वा दिया है। रात्रि में बोलने और आधुनिक उपकरणों ने गुप्तियों का पालन भी छुड़ा दिया है। चारित्रभ्रष्ट साधुओं की क्रिया शास्त्राभ्यासी कुछ साधुओं का उक्त आचरण देखकर संक्लेषित होते हैं। धर्म की अप्रभावना होती है। अत: तेरह प्रकार का चारित्र प्रत्येक साधु को सतत पालने करते रहने की आवश्यकता है। मृगचरित्र___मृग-पशु के समान जिनका आचरण है, वे मृगचरित्र कहलाते हैं। ये मुनि आचार्य के उपदेश/आदेश को स्वीकार न करके स्वच्छन्द और एकाकी विचरण करते हैं। जिन वचनों में दूषण लगाकर तप:सूत्रों के प्रति अविनीत और धृति से रहित हो जाते हैं ये जिनसूत्र में दूषण लगाते हैं पूर्वाचार्यों के वाक्यों को न मानकर अपनी इच्छानुसार अर्थ की कल्पना करते हैं-कैंची से केश निकालना ही योग्य है ऐसा कहते हैं। केशलोंच करने से आत्मविराधना होती है। सचित्त तृण पर बैठने पर भी मूलगुण पाला जाता है। उद्देशादिक दोष सहित भोजन करने में दोष नहीं है। ग्राम में आहार करने जाने से जीव विराधना होती है। अत: अपनी प्रेरणा से बनवायी गई आश्रम रूप वसतिका में ही भोजन करना चाहिए। इस प्रकार उत्सूत्र भाषण करने वाले मृगचारित्री जो श्रमण हैं वे श्रमणाभास हैं। दीक्षा लेकर संघ तुरन्त छोड़कर अकेले स्वच्छन्द विचरण में जिन्हें संकोच नहीं है। वे स्वच्छन्द विचरण करने वाले निज-पर हानि करते हैं। भ्रष्ट मुनि दूसरे से ही साधु मार्ग का त्याग करके उन्मार्ग में प्रवृत्त रहते हैं तथा आगम में कहे हुए कुशील नामक मुनि के दोषों का आचरण करते हैं। इन्द्रिय के विषयों तथा कषाय के तीव्र कार्यों में तत्पर हुए वे मुनि चारित्र को तृणवत् समझते हुए निर्लज्ज होकर कुशील का सेवन करते हैं। जो मुनि साधु मार्ग का त्याग कर स्वतंत्र हुआ है, जो स्वेच्छाचारी बनकर आगमविरुद्ध और पूर्वाचार्यों के द्वारा न कहे हुए आचारों की कल्पना करता है उसे स्वच्छन्द नामक भ्रष्ट मुनि समझना चाहिए। (भगवती 1306-1317) चारित्रहीन मुनि लक्षावधि मुनि हों तो भी एक सुशील मुनि उनसे श्रेष्ठ है। कारण कि सुशील मुनि के आश्रय से शील दर्शन, ज्ञान और चारित्र बढ़ते हैं। (भगवती 354-359) आचरणहीन को अनेक निंदनीय नामों से उल्लिखित किया गया मिथ्यादृष्टि, स्वच्छंद, द्रव्यलिंगी, पापश्रमण, नट, पापजीव, तिर्यंचयोनि, नारद, लौकिक, अभव्य, राजवल्लभ आदि निंदनीय नाम दिये गये हैं।

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